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________________ [5] भवार्थ - जैन प्रवचन में तीर्थंकर परमात्मा के सिद्धान्त रूप द्वादशांग गणिपिटक का, जो अन्य सब तीर्थकरों द्वारा अनुमत है, जिनानुकूल है, जिन प्रणीत है, जिन प्ररूपित है, जिनाख्यात है, जिनानुचीर्ण है, जिन प्रज्ञप्त है, जिन देशित है, जिन प्रशस्त है, पर्यालोचन कर उस पर श्रद्धा करते हुए, उस पर प्रतीति करते हुए, उस पर रुचि रखते हुए स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन प्ररूपित किया है। . प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है, इससे स्पष्ट ध्वनित है कि इसमें जीव और अजीव का वर्णन है। परन्तु अजीव का तो बहुत ही संक्षेप में वर्णन है, विस्तृत रूप से तो इसमें जीव का ही वर्णन है। इसमें नौ प्रतिपत्तियाँ (प्रकरण) हैं। प्रथम प्रतिपत्ति में जीवाभिगम और अजीवाभिगम का निरूपण किया गया है। जबकि शेष आठ प्रतिपत्तियों में जीवों का ही निरूपण किया गया है। ___ इस समस्त लोक में जो भी चराचर या दृश्य अदृश्य पदार्थ या सद्प वस्तु विशेष है वह सब जीव या अजीव इस दो पदों में समाविष्ट है। मूलभूत तत्त्व जीव और अजीव हैं, शेष पुण्य पाप आस्रव संवर बंध और मोक्ष-ये सब इन दो तत्त्वों के सम्मिलन और वियोग परिणति मात्र है। जैन दर्शन में आत्मतत्त्व का बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विस्तृत विवेचन किया है। जैन चिंतन की धारा का उद्गम आत्मा से होता है और अन्त मोक्ष प्राप्ति से। आचारांग सत्र का आरम्भ ही आत्म जिज्ञासा से हुआ है, उनके आदि वाक्य में ही कहा गया है-इस संसार में कई जीवों को यह ज्ञान और भान नहीं होता कि उनकी आत्मा किस दिशा से आयी है और कहाँ जावेगी? वे यह भी नहीं जानते कि उनकी आत्मा जन्मान्तर में संचरण करने वाली हैं या नहीं? मैं पूर्व जन्म में कौन था यहाँ से मरकर दूसरे जन्म में क्या होऊँगा-? यह भी वे नहीं जानते। किन्तु विशेष ज्ञान (जातिस्मरण ज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान, केवल ज्ञान) से जब जीव यह जान लेता है कि इन विभिन्न दिशा-विदिशाओं में जन्म मरण करने वाली मेरी आत्मा ही है। जो पुरुष आत्मा के इस स्वरूप को जानता है, ज्ञानियों ने उसे आत्मवादी कहा है। जो आत्मवादी है, वही लोकवादी अर्थात् लोक का यथार्थ स्वरूप जानने वाला है। जो आत्मवादी और लोकवादी है, वही कर्मवादी अर्थात् कर्मों का यथार्थ स्वरूप जानने वाला होता है और वही क्रियावादी है। यानी कर्मबंध के कारण भूत क्रिया को जानने वाला होता है। जीवात्मा जब तक विभावदशा में रहता है, तब तक अजीव पुद्गलात्मक कर्मवर्गणाओं से आबद्ध होता है। फलस्वरूप उसे शरीर के बंधन से बंधना पड़ता है। एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना पड़ता है। इस प्रकार शरीर धारण करने और छोड़ने की परम्परा चलती रहती है। यह परम्परा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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