SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव अष्टविध वक्तव्यता ३८७ ...................••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• शंका - लान्तक आदि देवों से सनतकुमार आदि देवलोकों के देव असंख्यातगुणा हैं तो शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या वाले असंख्यातगुणा होने चाहिये, संख्यात गुणा ही क्यों? .. समाधान - जघन्य पद में भी असंख्यात सनत्कुमार आदि तीनों देवलोकों के देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में शुक्ल लेश्या होती है अतः पद्म लेश्या वाले शुक्ल लेश्या वालों से संख्यातगुणा ही होते हैं। उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणा हैं क्योंकि उनसे संख्यातगुणा तिर्यंच पंचेन्द्रियों, मनुष्यों, भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषियों तथा सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या पायी जाती है। उनसे अलेशी अनंतगुणा हैं क्योंकि सिद्ध अनंत हैं। उनसे कापोत लेश्या वाले अनंतगुणा हैं क्योंकि सिद्धों से भी वनस्पतिकायिक अनंत हैं और उनमें कापोत लेश्या है। उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं उनसे भी कृष्ण लेश्या वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि क्लिष्टतर अध्यवसाय वाले बहुत होते हैं यह सप्तविध सर्वजीव प्रतिपति समाप्त हुई। 'सर्व जीव अष्टविध वक्तव्यता .: तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-अट्ठविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी॥ आभिणिबोहियणाणी णं भंते! आभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं छावट्ठिसागरोवमाइं साइरेगाइं, एवं सुयणाणीवि। ओहिणाणी णं भंते!०? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छावट्टिसागरोवमाइं साइरेगाई, मणपजवणाणी णं भंते!? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी, केवलणाणी णं भंते!०? गोयमा! साइए अपजवसिए, मइअण्णाणी णं भंते!? गोयमा! मइअण्णाणी तिविहे पण्णत्ते, तंजहाअणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियट्टं देसूणं, सुयअण्णाणी एवं चेव, विभंगणाणी णं भंते! विभंग०? गोयमा! जहणणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियाइं॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy