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________________ ३५८ जीवाजीवाभिगम सूत्र ..........................rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrror दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- अणाइए वा अपज्जवसिए साइए वा अपज्जवसिए, दोण्हंपि णत्थि अंतरं, अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा अचरिमा चरिमा अर्णतगुणा ॥२४९॥ भावार्थ - अथवा सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - चरम और अचरम। प्रश्न - हे भगवन्! चरम, चरम रूप में कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! चरम अनादि सपर्यवसित है। अचरम दो प्रकार के कहे गये हैं-अनादि अपर्यवसित और सादि अपर्यवसित। दोनों का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अचरम हैं उनसे चरम अनंतगुणा हैं। इस प्रकार सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। - विवेचन - चरम भव वाले भव्य विशेष वे जीव जो सिद्ध होंगे, चरम कहलाते हैं। इनसे विपरीत अचरम कहलाते हैं। ये अचरम हैं - अभव्य और सिद्ध। चरम अनादि-सपर्यवसित है अन्यथा वह चरम नहीं कहा जा सकता। अचरम दो प्रकार के कहे हैं - अनादि अपर्यवसित और सादि अपर्यवसित। अनादि अपर्यवसित अचरम अभव्य जीव हैं और सादि अपर्यवसित अचरम सिद्ध हैं। अन्तर - अनादि सपर्यवसित चरम का अन्तर नहीं है क्योंकि चरमत्व के जाने पर पुनः चरमत्व संभव नहीं है। दोनों अचरम का अन्तर नहीं है क्योंकि इनका चरमत्व होता ही नहीं। अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े अचरम हैं क्योंकि अभव्य और सिद्ध ही अचरम हैं। उनसे चरम अनन्तगुणा हैं। यह कथन सभी भव्यों की अपेक्षा से समझना चाहिये अर्थात् - चरम अनन्तगुणा हैं यह सभी भव्यों की अपेक्षा से ही समझना चाहिये। इस प्रकार सर्व जीव की यह द्विविध प्रतिपत्ति संपूर्ण हुई। इसकी द्विविध वक्तव्यता को संगृहीत करने वाली गाथा इस प्रकार है - सिद्ध सइंदिय काए जोए वेए कसायलेसा य। णाणुवओगाहारा भाससरीरी य चरमो य॥ . सर्व जीव-त्रिविध वक्तव्यता तत्थ णं जे ते एवमाहंसु तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहासम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी॥ सम्मदिट्ठी गं भंते! कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! सम्मदिट्ठी दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-साइए वा अपज्जवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ जे ते साइए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावटुिं सागरोवमाइं साइरेगाइं० मिच्छादिट्ठी तिविहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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