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________________ ३३४ जीवाजीवाभिगम सूत्र •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन प्रथम समय नैरयिकों और अप्रथम समय नैरयिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े प्रथम समय नैरयिक, उनसे अप्रथम समय नैरयिक असंख्यातगुणा हैं। इसी प्रकार सभी (तिर्यंच, मनुष्य और देवों के प्रथम समय और प्रथम समयों) का अल्पबहुत्व कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि अप्रथम समय तिर्यंच अनंतगुणा कहना चाहिये। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कथित तीसरा अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना चाहिये - सबसे थोड़े प्रथम समय नैरयिक हैं क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी थोड़े ही हैं। उनसे अप्रथम समय नैरयिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि यह चिरकाल स्थायी होने से अन्य अन्य बहुत समयों में अति प्रभूत उत्पन्न होते हैं। इसी तरह तिर्यंच, मनुष्य और देवों में भी कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि तिर्यंचों में अप्रथम समय तिर्यंच अनंतगुणा कह देने चाहिये क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं। एएसिणं भंते! पढमसमयणेरइयाणं जाव अपढमसमयदेवाण य कयरे २.....? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा अपढमसमयमणुस्सा असंखेजगुणा पढमसमयणेरइया असंखेजगुणा पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा पढमसमय तिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा अपढमसमयणेरइया असंखेजगुणा अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सेत्तं अट्ठविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता॥२४१॥ ॥सत्तमा अट्ठविहपडिवत्ती समत्ता॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! प्रथम समय नैरयिकों यावत् अप्रथम समय देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े प्रथम समय मनुष्य, उनसे अप्रथमसमय मनुष्य असंख्यातगुणा, उनसे प्रथम समय नैरयिक असंख्यातगुणा, उनसे प्रथम समय देव असंख्यातगुणा, उनसे प्रथम समय तिर्यंच असंख्यातगुणा, उनसे अप्रथम समय नैरयिक असंख्यातगुणा, उनसे अप्रथम समय देव असंख्यातगुणा, उनसे अप्रथम समय तिर्यंच अनन्तगणा। इस प्रकार आठ प्रकार के संसार समापन्नक जीवों का वर्णन हुआ। अष्टविधाख्या नामक सातवीं प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन - प्रस्तुत चौथे अल्पबहुत्व में प्रथम समय और अप्रथम समय नैरयिक आदि का शामिल अल्पबहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - __सबसे थोड़े प्रथम समय मनुष्य हैं क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी थोड़े हैं। उनसे अप्रथम समय मनुष्य असंख्यातगुणा हैं क्योंकि चिरकाल स्थायी होने से अति प्रभूत उत्पन्न होते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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