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________________ ३१६ जीवाजीवाभिगम सूत्र समाधान - उपर्युक्त सभी पाठों के सम्बन्ध में पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव निम्नोक्त प्रकार से फरमाया करते थे- यहाँ (जीवाभिगम सूत्र) के एवं प्रज्ञापना सूत्र के १८ वें कायस्थिति पद में वर्णित अपर्याप्त की काय स्थिति 'करण अपर्याप्त' की अपेक्षा से होती है। करण अपर्याप्त कोई भी जीव नहीं मरता है। अतः अपर्याप्त की काय स्थिति एक भव की अपेक्षा से ही समझी जाती है। गमा शतक में वनस्पति जीव के वनस्पति घर में पांचवें गमक में जो अनन्त भव बताए हैं वे लब्धि अपर्याप्त की अपेक्षा से हैं। अतः गमा शतक और काय स्थिति पद में परस्पर विरोध नहीं समझना चाहिये। शंका - सूक्ष्म वनस्पति के अपर्याप्तों से पर्याप्त जीवों को संख्यात गुणा बताया है। इसका क्या कारण है? समाधान - गमा शतक में पांचवें गमक में जो अनन्त भव बताए हैं वह उत्कृष्ट काय संवेध की अपेक्षा बताए हैं। जघन्य काय संवेध तो दो भव का ही होता है। उत्कृष्ट काय संवेध वाले जीव स्वल्प-मात्र संख्यात भाग जितने ही होते हैं। शेष संख्यात गुण जीव मध्यम काय संवेध वाले होते हैं। वे जीव लब्धि अपर्याप्त भवों की अपेक्षा लब्धि पर्याप्त भवों में संख्यात गुण अधिक काल तक रहने वाले होते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त सभी में मिलाकर जीव अनन्तकाल तक वनस्पति में रह जाता है। उत्कृष्ट काय संवेध वाले जीव स्वल्प मात्रा में समझने पर अट्ठाणु बोल की अल्प बहुत्व के साथ भी कोई विरोध नहीं आएगा। सूक्ष्म बादर निगोद की उत्कृष्ट भव स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त ही है। पर्याप्त का लगातार आठ भवों का कालमान भी अन्तर्मुहूर्त होने से कायस्थिति पद में सूक्ष्म बादर निगोद के पर्याप्तकों की कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त बताई है। एएसि णं भंते! सुहुमाणं बायराण य पजत्ताणं अपज्जत्ताण य कयरे २.....? गोयमा! सव्वत्थोवा बायरा पजत्ता बायरा अपजत्ता असंखेजगुणा सुहुमा अपजत्ता असंखेजगुणा सुहुमपजत्ता संखेजगुणा, एवं सुहुमपुढविबायरपुढवि जाव सुहमणिओया बायरणिओया णवरं पत्तेयसरीरबायरवण सव्वत्थोवा पजत्ता अपजत्ता असंखेजगुणा, एवं बायर तसकाइयावि॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन सूक्ष्मों और बादरों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किससे अल्प, बहुत्व, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े बादर पर्याप्तक हैं (क्योंकि ये परिमित क्षेत्रवर्ती हैं) उनसे बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं (क्योंकि प्रत्येक बादर पर्याप्तक की नेश्राय में असंख्यात बादर अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं) उनसे सूक्ष्म अपर्याप्तक, उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणा है (क्योंकि चिरकाल स्थायी होने से ये सदैव संख्यातगुणा होते हैं) इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकाय, बादर पृथ्वीकाय यावत् सूक्ष्म निगोद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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