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________________ १६ जीवाजीवाभिगम सूत्र .00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000+ ठिई पण्णत्ता, अब्भंतरपरिसाए देवीणं साइरेगं चउब्भागपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवीणं चउब्भागपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देसूणं चउब्भागपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, अट्ठो जो चेव चमरस्स, एवं उत्तरस्सवि, एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्स ॥१२१॥ भावार्थ - हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यंतर परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? मध्यम परिषद् और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? यावत् बाह्य परिषद् की देवियों की कितनी स्थिति कही गई है? ___ हे गौतम! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यंतर परिषद् के देवों की स्थिति आधा पल्योपम की, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति देशोन-कुछ कम आधा पल्योपम की और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है। आभ्यंतर परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ कम पाव-पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह कह देना चाहिये। इसी प्रकार उत्तरदिशा के वाणव्यंतर देवों के विषय में भी समझना चाहिये. यावत् गीतयश गंधर्व इन्द्र तक सारी वक्तव्यता कह देनी चाहिये। विवेचन- दक्षिण दिशा के पिशाचकमारेन्द्र पिशाचराज काल के वर्णन के अनुसार उत्तरदिशा के पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज महाकाल का वर्णन समझना चाहिये। पिशाचकुमार देवों की तरह ही शेष सात वाणव्यंतर देवों का वर्णन कहना चाहिये। वाणव्यंतर देवों के इन्द्रों के नाम निम्न दो संग्रहणी गाथा में दिये गये हैं - काले य महाकाले सुरूव पडिरूव पुण्णभद्दे यो अमरवइ माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे।। १॥ किन्नर किंपरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापरिसे। अइकाय महाकाए गीयरई चेव गीतजसे॥ २॥ - पिशाचों के दो इन्द्र - काल और महाकाल। भूतों के दो इन्द्र - सुरूप और प्रतिरूप। यक्षों के दो इन्द्र - पूर्णभद्र और माणिभद्र। राक्षसों के दो इन्द्र - भीम और महाभीम। किन्नरों के दो इन्द्र - किन्नर और किंपुरुष। किम्पुरुषों के दो इन्द्र - सत्पुरुष और महापुरुष । महोरगों के दो इन्द्र - अतिकाय और महाकाय। गंधर्वो के दो इन्द्र - गीतरति और गीतयश। इन दो-दो इन्द्रों में से प्रथम इन्द्र दक्षिण दिशा वाले देवों का एवं द्वितीय इन्द्र उत्तरदिशा वाले देवों का है। इस प्रकार वाणव्यंतर देवों का वर्णन कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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