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पंचम प्रतिपत्ति - अल्पबहुत्व
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हैं-१. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक ३. तेउकायिक ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक और ६. त्रसकायिक। सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से एकेन्द्रिय जीवों के चार-चार भेद होते हैं।
पुढविकाइयस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं, एवं सव्वेसिं ठिई णेयव्वा, तसकाइयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, अपजत्तगाणं सव्वेसिं जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, पजत्तगाणं सव्वेसिं उक्कोसिया ठिई अंतोमुहत्तूणा कायव्वा ॥२२७॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिकों की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बावीस सागरोपम की है। इसी प्रकार सब की स्थिति कह देनी चाहिये। त्रस कायिकों की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। सभी अपर्याप्तक जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त प्रमाण है। सभी पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति कुल स्थिति में से अंतर्मुहूर्त कम करके कह देनी चाहिये।
पुढविकाइए णं भंते! पुढविकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? - गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज कालं जाव असंखेजा लोया। एवं जाव आउ० तेउ० वाउक्काइयाणं। वणस्सइकाइयाणं अणंतं कालं जाव आवलियाए असंखेजइभागो॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकाय, पृथ्वीकाय रूप में कितने काल तक रह सकता है ?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकाय की काय स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल यावत् असंख्यात लोक प्रमाण है। इसी प्रकार यावत् अप्काय, तेउकाय, वायुकाय की कायस्थिति (संचिट्ठणा) कह देनी चाहिये। वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनंतकाल यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
- विवेचन - पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय और वायुकाय की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल की कही है। असंख्यात काल से आशय है - काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणियां और अवसर्पिणियाँ तथा क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक अर्थात् असंख्यात लोक प्रमाण आकाश खंडों में से प्रति समय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने काल में वे असंख्यात लोकाकाश के खण्ड उन प्रदेशों से खाली हो जावें इतने असंख्यात काल की उन जीवों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) हैं।
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