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________________ ततीय प्रतिपत्ति - नंदीश्वर द्वीप का वर्णन २२१ ............................................*************** नंदीश्वर द्वीप का वर्णन खोदोदण्णं समुहं णंदीसरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए तहेव जाव परिक्खेवो। पउमवर० वणसंडपरि० दारा दारंतरप्पएसे जीवा तहेव॥ - से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ-णंदीसरवरदीवे णंदीसरवरदीवे? गोयमा! णंदीसरवरदीवे णंदीसरवरदीवे तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहूओ खुड्डा० वावीओ जाव बिलपंतियाओ खोदोदगपडिहत्थाओ० उप्पायपव्वयगा सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा॥ भावार्थ - क्षोदोद नामक समुद्र को गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित नंदीश्वर द्वीप चारों ओर से घेर कर रहा हुआ है। इस प्रकार परिधि आदि से लेकर जीवोत्पत्ति तक सारा वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये। प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से नंदीश्वर द्वीप, नंदीश्वर द्वीप कहलाता है ? उत्तर - हे गौतम! नंदीश्वरद्वीप में स्थान स्थान पर यहां-वहां बहुत सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् बिल पंक्तियां हैं जो इक्षुरस के समान जल से परिपूर्ण है। उसमें अनेक उत्पात पर्वत हैं जो • सर्ववज्रमय हैं स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। अदुत्तरं च णं गोयमा! णंदीसरवरदीवचक्कवालविक्खंभबहुमज्झदेसभागे एत्थ णं चउद्दिसिं चत्तारि अंजणगपव्वया पण्णत्ता, ते णं अंजणगपव्वया चउरासीइजोयणसहस्साइं उर्दू उच्चत्तेणं एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले साइरेगाइं दस जोयणसहस्साइं धरणियले दस जोयणसहस्साई आयामविक्खभेणं तओऽणंतरं च णं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणा परिहायमाणा उवरि एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसए किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए देसूणे परिक्खेवेणं सिहरतले तिण्णि जोयणसहस्साइं एगं च बावटुं जोयणसयं किचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्वंजणामया अच्छा जाव पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरि० पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता वण्णओ॥ भावार्थ - हे गौतम! दूसरी बात यह है कि नंदीश्वर द्वीप के चक्रवाल विष्कंभ के मध्यभाग में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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