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________________ २१८ जीवाजीवाभिगम सूत्र .0000000000000000000000000000rstorrenorrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrs. वर्तुल और वलयाकार है, समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवाल संस्थान से नहीं। उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है। प्रदेश स्पर्श आदि सारा वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये यावत् नाम संबंधी प्रश्न करना चाहिये। हे गौतम! घृतवरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी छोटी-छोटी बावड़ियां आदि हैं जो घृतोदंक से भरी हुई हैं। वहां उत्पात पर्वत यावत् खडहड आदि पर्वत हैं वे सर्वकंचनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। वहां कनक और कनकप्रभ नाम के दो महर्द्धिक रहते हैं। उस द्वीप में चन्द्र आदि ज्योतिषी की संख्या संख्यात संख्यात है। घयवरण्णं दीवं घओदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठइ, समचक्क० तहेव दारपएसा जीवा य अट्ठो, गोयमा! घओदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहा० सेजवग्ग पप्फुल्लसल्लइविमुकुलकण्णियारसरसवसुविसुद्धकोरेंटदामपिडियतरस्स णिद्धगुणतेयदीवियणिरुवहयविसिट्ठसुंदरतरस्स सुजायदहिमहियतद्दिवसगहियणवणीयपडुवणावियमुक्कड्डियउद्दावसज्जवीसंदियस्स अहियं पीवरसुरहिगंधमणहरमहुरपरिणामदरिसणिज्जस्स पत्थणिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालंमि होज्ज गोघयवरस्स मंडए, भवे एयारूवे सिया?, णो इणढे समढे, गोयमा! घओदस्स णं समुद्दस्स एत्तो इट्ठयराए जाव आसाएणं प० कंतसुकंता एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति सेसं तं चेव जाव तारागणकोडिकोडीओ॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पप्फुल्लसल्लइ विमुकुल कणियार सरसव सुविसुद्ध कोरेंटदाम पिंडियतरस्स - प्रफुल्ल-पुलकित शल्लकी विमुत्कल कर्णिकार सर्षप सुविबुद्ध कोरण्ट दाम पिण्डिततरस्य-शल्लकी विमुक्त फूले हुए कनेर के पुष्प जैसा, सरसों के फूल जैसा तथा कोरण्ट की माला जैसा कुछ कुछ पीत (पीले) वर्ण का, णिद्धगुणतेयदीवियणिरुवहयविसिट्ठसुंदरतरस्स - स्निग्ध गुणतेजो दीप्तस्य निरुपहत विशिष्ट सुंदरतरस्य-स्निग्ध गुण वाला, अग्नि के संयोग से दीप्त होने वाला, निरुपहत विशिष्ट और सुंदर, सुजायदहिमहियतदिवसगहीय णवणीयपडुवणा वियमुक्कड्डियउद्दावसज्जवीसंदियस्स - सुजातदधिमथित तद्दिवस गृहीत नवनीत पटुसंगृहीतोत्क्वथित उद्दामसद्योविस्यन्दितस्यअच्छी तरह जमाये हुए दही को सुंदर रीति से उसी दिन मथित करने पर प्राप्त मक्खन (नवनीत) को तपाये जाने पर उसी स्थान पर छानने से उस घृत पर जमी हुई थर, गोघयवरस्स मंडए - गो घृत के मंड (सार) जैसा, घी के ऊपर जमे हुए थर को मंड कहते हैं। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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