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तृतीय प्रतिपत्ति समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का वर्णन
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चारोववण्णगा चारट्ठिझ्या णो गइरइया णो गइसमावण्णगा पक्किट्टगसंठाणसंठिएहिं जोयणसय- साहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहि य बाहिराहिं वेडव्वियाहिं परिसाहिं महया हयणट्टगीयवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा जाव सुहलेस्सा सीयलेस्सा मंदलेस्सा मंदावलेस्सा चित्तंतरलेसागा कूडा इव ठाणट्ठिया अण्णोण्णसमोगाढाहिं साहिं ते पएसे सव्वओ समंता ओभासेंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति ॥ जाणं भंते! तेसिं देवाणं इंदे चयइ से कहमिदाणिं पकरेंति ?
गोयमा ! जाव चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपरिज्जत्ताणं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ ।
इंदट्ठाणे णं भंते! केवइयं कालं विरहिए उववाएणं प० ?
गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा ॥ १७९ ॥
भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ? उत्तर - हे गौतम! इन्द्र का स्थान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक खाली रहता है।
प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य क्षेत्र से बाहर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिषी देव क्या ऊर्ध्वोपपन्न हैं, कल्पोपपन्न हैं, विमानोपपन्न हैं गतिशील हैं या गति स्थिर हैं, गति में रति करने वाले हैं या गति प्राप्त हैं ?
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उत्तर - हे गौतम! मनुष्य क्षेत्र से बाहर के ज्योतिषी देव ऊर्ध्वोपपन्नक नहीं हैं, कल्पोपपन्नक नहीं है किन्तु विमानोपपन्नक हैं। वे गतिशील नहीं हैं गति स्थिर हैं। गतिरतिक नहीं हैं, गति प्राप्त नहीं है । वे पकी हुई ईंट के आकार के हैं। लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है । वे विक्रिया किये हुए हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों और वादिन्त्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग करते हुए रहते हैं । वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद हैं उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं है उनका प्रकाश विचित्र प्रकार का है। कूट-शिखर की तरह एक स्थान पर स्थित हैं। इन चन्द्रों और सूर्यों का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित है। वे अपनी सम्मिलित किरणों से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित, उद्योतित, तापित और प्रभासित करते हैं ।
प्रश्न - हे भगवन् ! जब इन ज्योतिषी देवों का इन्द्र चवता है तो वे देव क्या करते हैं ?
उत्तर हे गौतम! यावत् चार पांच सामानिक देव उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से तब तक कार्यरत रहते हैं जब तक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न न हो।
प्रश्न - हे भगवन् ! उस इन्द्र स्थान का विरह कितने काल का है ?
उत्तर - हे गौतम! उस इन्द्र स्थान का विरह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास का होता है।
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