________________
तृतीय प्रतिपत्ति समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का वर्णन
-
है। ग्रह आदि की चाल नियत होती है। तारे वक्रानुवक्र चारी होने से इनके मंडल गोल नहीं है । अतः इनके मंडल अवस्थित नहीं बताए हैं।
रयणियरदिणयराणं उड्डे व अहे व संकमो णत्थि ।
मंडलसंकमणं पुण अब्धिंतरबाहिरं तिरिए ॥ १२॥
भावार्थ - चन्द्र और सूर्य का ऊपर और नीचे संक्रम नहीं होता क्योंकि ऐसा ही जगत् स्वभाव है । इनका विचरण तिरछी दिशा में सर्व आभ्यंतर मंडल से सर्व बाह्यमंडल तक और सर्व बाह्य मंडल से सर्व आभ्यंतर मण्डल तक होता रहता है।
रणियरदिणयराणं णक्खत्ताणं महग्गहाणं च ।
चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही मणुस्साणं ॥ १३ ॥
भावार्थ - चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, महाग्रह और ताराओं की गति विशेष रूप से मनुष्यों के सुख दुःख प्रभावित होते हैं।
विवेचन - मनुष्यों के कर्म दो प्रकार के होते हैं १. शुभ वेद्य और २. अशुभ वेद्य । इनके सामान्यतः विपाक के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के पांच भेद माने गये हैं । कहा भी है
उदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्पुणो भणिया
दव्वं खेत्तं कालं भावं भवं च संपण्ण ॥ १ ॥
Jain Education International
१९९
**❖❖
=
• शुभ वेद्य कर्मों के विपाक के कारण शुभ द्रव्य, शुभ क्षेत्र आदि होते हैं और अशुभ वेद्य कर्मों
के विपाक के कारण अशुभ द्रव्य, अशुभ क्षेत्र आदि होते हैं अतः जिनके जन्म, नक्षत्र आदि के अनुकूल चन्द्रादिकों की चाल है तब उनके प्रायः जो शुभ वेद्य कर्म हैं वे तथाविध विपाक समाग्री को प्राप्त कर जब विपाक में आते हैं तब वे जीव शरीर में नीरोगता, धनवृद्धि, वैर शांति, आप्त संयोग आदि के निमित्त से सुखी होते हैं।
जीवों का सुख दुःख तो कर्मानुसार ही होता है। ग्रह नक्षत्र आदि से तो शुभाशुभ का ज्ञान मात्र होता है। जैसे अंग स्फुरण सुख दुःख का कारण नहीं हैं पर इसके द्वारा सुख दुःख के अनुमान का ज्ञान मात्र होता है । इसी प्रकार आते समय काक पक्षी का, रवाना होते समय चिड़ीया, गर्दभ आदि को भी शाकुनिकों, आनुमानिकों, विशेषज्ञों एवं विभंगज्ञानियों द्वारा भी इन चिन्ह आदि को शुभाशुभ का मार्ग बोधकं माना गया है। सुख दुःख आदि निर्मित के कारण महाग्रहों में चन्द्र सूर्य को लिया गया है क्योंकि चन्द्र सूर्य ही इन्द्र कहलाते हैं।
तेसि पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्डए णियमा ।
तेणेव कमेण पुणो परिहायइ णिक्खमंताणं ॥ १४ ॥
For Personal & Private Use Only
-
www.jainelibrary.org