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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - देवों का वर्णन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - हे भगवन् ! भवनवासी देवों के भवन कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वे भवनवासी देव कहां रहते हैं ? हे गौतम! इस एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे के भाग को छोड़ कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में भवनावास कहे गये हैं इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार समझना चाहिये। वहां भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं। उनमें बहुत से भवनवासी देव रहते हैं वे इस प्रकार हैं - असुरकुमार,नागकुमार, सुपर्णकुमार इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार कह देना चाहिये यावत् दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भवनवासी देवों के भवनों और उनके निवास स्थान के विषय में कथन किया गया है। एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे का भाग छोडने पर शेष एक लाख अठहत्तर भवनवासी देवों के कुल ७ करोड़ ७२ लाख भवनावास इस प्रकार हैं - १. असुरकुमार देवों के ६४ लाख २. नागकुमार देवों के ८४ लाख ३. सुपर्णकुमार देवों के ७२ लाख ४. विद्युत्कुमार देवों के ७६ लाख ५. अग्निकुमार देवों के ७६ लाख ६. द्वीपकुमार देवों के ७६ लाख ७. उदधिकुमार देवों के ७६ लाख ८. दिक्कुमार देवों के ७६ लाख ९. पवनकुमार देवों के ९६ लाख और १०. स्तनितकुमार देवों के ७६ लाख, इस प्रकार भवनपति देवों के कुल सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं। . असुरकुमार आदि देव प्रायः भवनों में रहते हैं इसलिए इन्हें भवनपति या भवनवासी देव कहते हैं। कहि णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा प०? पुच्छा, एवं जहा पण्णवणाठाणपए जाव विहरंति॥ कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा, एवं जहा ठाणपए जाव चमरे तत्थ असुरकुमारिदे असुरकुमारराया परिवसइ जाव विहरइ॥ ११७॥ भावार्थ - हे भगवन्! असुरकुमार देवों के भवन कहां कहे गये हैं ? हे गौतम! जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के स्थान पद में कहा गया है उसी प्रकार यहां भी समझ लेना चाहिये यावत् वे दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के भवनों के विषय में पृच्छा। हे गौतम! जैसा स्थान पद में कहा गया है उसी प्रकार यहां भी कह देना चाहिये यावत् असुरकुमारों का इन्द्र चमर दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचरता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भवनवासी देवों के प्रथम भेद असुरकुमार देवों को वक्तव्यता कही है। भ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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