SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्ति - वेलंधर नागराज का वर्णन १५७ सर्व रत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से घिरा हुआ है यावत् यह शंख नामक आवास पर्वत क्यों कहा जाता है? हे गौतम ! उस शंख आवास पर्वत पर छोटी छोटी बावड़ियां आदि है जिनमें बहुत से उत्पल आदि हैं जो शंख की आभा वाले, शंख के रंग वाले हैं और शंख की आकृति वाले हैं वहां शंख नामक महर्द्धिक देव रहता है। वह शंख नामक राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। शंख नामक राजधानी शंख आवास पर्वत के पश्चिम में है आदि विजया राजधानी के समान प्रमाण आदि कह देना चाहिये। कहि णं भंते! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते? ___ गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते तं चेव पमाणं णवरि सव्वफलिहामए अच्छे जाव: पडिरूवे अट्ठो, गोयमा! दगसीमंते णं आवासपव्वए सीयासीयोयगाणं महाणईणं तत्थ गओ सोए पडिहम्मइ से तेणटेणं जाव णिच्चे, मणोसिलए एत्थ देवे महिड्डिए जाव से णं तत्थ चउण्हं सामाणिय साहस्सीणं जाव विहरइ॥ - कहि णं भंते! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स मणोसिला णामं रायहाणी पण्णत्ता? . गोयमा! दगसीमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमंसंखेजे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णमि लवणे एत्थ णं मणोसिलिया णाम रायहाणी पण्णत्ता तं चेव पमाणं जाव मणोसिलए देवे। कणगंकरययफालियमया य वेलंधराणमावासा। अणुवेलंधरराईण पव्वया होंति रयणमया॥१॥॥१५९॥ भावार्थ - हे भगवन्! मनःशिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नामक आवास पर्वत किस स्थान पर है? .' हे गौतम! जंबूद्वीप के मेरु पर्वत की उत्तरदिशा में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर मनःशिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नामक आवास पर्वत है। उसका प्रमाण आदि पूर्ववत् कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना स्फटिक रत्नमय है। स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है यावत् यह दकसीम क्यों कहा जाता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy