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________________ ९४ जीवाजीवाभिगम सूत्र समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहां क्षीरोद समुद्र है वहां जाते हैं, वहां का क्षीरोदक लेकर वहां के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं। वहां से पुष्करोद समुद्र की ओर जाते हैं पुष्करोदक तथा उत्पल, कमल यावत् शतपत्र सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं। वहां से वे समय क्षेत्र में जहां भरत ऐरवत. क्षेत्र हैं जहां मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ हैं वहां आकर तीर्थोदक को ग्रहण करते हैं। तीर्थों की मिट्टी को लेकर जहां गंगा सिन्धू, रक्ता रक्तवती महानदियां हैं वहां आकर उनका जल और नदी तटों की मिट्टी लेकर जहां क्षुल्लहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत हैं वहां आते हैं वहां से सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ, सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों (गूंथी हुई मालाओं), सब प्रकार की औषधियों और सिद्धार्थकों (सरसों) को लेते हैं। वहां से पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह की ओर जाते हैं और वहां से द्रहों का जल लेते हैं और वहां के उत्पल कमलों यावत् शतपत्र सहस्रपत्र कमलों कों लेते हैं। वहां से हेमवत और हैरण्यवत् क्षेत्रों में रोहिता रोहितांशा सुवर्णकूला और रूप्यकूला महानिदयों पर जाते हैं वहां का जल और दोनों किनारों की मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहां से शब्दापाति और माल्यवंत नाम के वृत वैताढ्य पर्वतों पर आते हैं वहां के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों यावत् सभी औषधियों और सिद्धार्थकों को लेते हैं। वहां से महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों पर जाते हैं वहां के सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं। वहां से महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह पर आते हैं वहां के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं। वहां से हरिवर्ष रम्यक्वर्ष की हरकांत हरिकांत नरकांत नारीकांत नदियों पर आते हैं और वहां का जल ग्रहण करते हैं। वहां से विकटापाति और गंधपाति वृत वैताढ्य पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं। वहां से निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के पुष्प आदि ग्रहण करते हैं। वहां से तिगिंछद्रह और केसरिद्रह पर आते हैं और वहां के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं। हैं। वहां से पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और दोनों तटों की मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहां से सब चक्रवर्ती विजयों के सभी मागध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों पर आते हैं और वहां का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहां से सब वक्षस्कार पर्वतों पर जाते हैं। वहां के सब ऋतुओं के फूल आदि ग्रहण करते हैं वहां से सर्वान्तर नदियों पर आकर वहां का जल और तटों की मिट्टी ग्रहण करते हैं। इसके बाद वे मेरु पर्वत के भद्रशालवन में आते हैं। वहां के सब ऋतुओं के फल यावत् सर्वोषधि और सरसों ग्रहण करते हैं। वहां से नन्दन वन में आते हैं वहां के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सर्वोषधि, सिद्धार्थक तथा सरस गोशीर्ष चंदन ग्रहण करते हैं। वहां से सौमनस वन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल यावत् सर्वोषधि, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चंदन तथा दिव्य फूलों की मालाएं ग्रहण करते हैं। वहां से पण्डकवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल, सर्वोषधियां, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चंदन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुआ मलय चंदन का चूर्ण आदि सुगंधित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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