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________________ ८३ तृतीय प्रतिपत्ति - सिद्धायतन का वर्णन +++00000000000000000000rkworrrrrrrrrrrrrrrrrrrr उस सिद्धायतन के बहुमध्य देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो दो योजन लम्बी चौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्वमणिमय है, स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवच्छंदक-आसन विशेष कहा गया है जो दो योजन लम्बा, चौड़ा और कुछ अधिक दो योजन का ऊंचा है, सर्वरत्नमय है और स्वच्छ स्फटिक के समान है। उस देवच्छंदक में जिनोत्सेध प्रमाण एक सौ आठ जिन प्रतिमाएं रखी हुई हैं। - विवेचन - यहां पर एवं अन्यत्र भी जहां 'सिद्धायतन' का वर्णन आया है। वहां सर्वत्र 'सिद्धायतन' का अर्थ - 'शाश्वत प्रतिमाओं का स्थान' समझना चाहिये। टीकाकार ने भी इसी प्रकार का अर्थ किया है। ये शाश्वत प्रतिमाएं तीर्थंकरों की नहीं समझकर कामदेव आदि सरागियों की समझनी चाहिये। मूलपाठ में आये हुए 'जिन' शब्द के अनेक अर्थ होने से यहां पर तीर्थंकर आदि के अर्थ उचित एवं प्रासंगिक नहीं होते हैं। : तासि णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तवणिज्जमया हत्थतला अंकामयाइं णक्खाइं अंतोलोहियक्खपरिसेयाई कणगामया पादा कणगामया गोप्फा कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया उरु कणगामयाओ गायलट्ठीओ तवणिज्जमईओ णाभीओ रिट्ठामईओ रोमराईओ तवणिज्जमया चुच्चुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमईओ गीवाओ रिट्ठामए मंसु सिलप्पवालमया उट्ठा फलिहामया दंता तवणिज्जमईओ जीहाओ तवणिज्जमया तालुया कणगमईओ णासाओ, अंतोलोहियक्खपरिसेयाओ अंकामयाइं अच्छीणि अंतोलोहियक्खपरिसेयाइं पुलगमईओ दिट्ठीओ रिट्ठामईओ तारगाओ रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताइं रिट्ठामईओ भमुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वट्टा वइरामईओ सीसघडिओ तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरिमुद्धज्जा॥ भावार्थ - उन जिन प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार कहा गया है - उनके हस्ततल तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके नख अंकरत्नों के हैं, उनका मध्य भाग लोहिताक्ष रत्नों की ललाई से युक्त हैं, उनके पांव स्वर्ण के हैं, उनके टखने (गुल्फ) कनकमय हैं, उनकी जंघाएं कनकमयी हैं, उनके घुटने कनकमय है, उनके जंघाएं (ऊरु) कनकमय हैं, उनकी गात्रयष्टि कनकमयी है, उनकी नाभियां तपनीय स्वर्ण की हैं, उनकी रोमराजि रिष्टरत्नों की है, उनके चूचूक (स्तनों के अग्रभाग) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके श्रीवत्स-छाती पर अंकित चिह्न तपनीय स्वर्ण के हैं, उनकी भुजाएं कनकमयी हैं, उनकी पसलियां Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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