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________________ [8] मनुष्य का बहुत ही विस्तार से इसमें वर्णन किया गया है। मनुष्यों के वर्णन के पश्चात् चार प्रकार के देवों भवनपति, व्याणव्यंतर, ज्योतिषक और वैमानिक का कथन किया गया है, उनके आवास, परिषद, इन्द्र, सामानिक आदि का उल्लेख किया गया। देवों के वर्णन के पश्चात द्वीप-समुद्रों का वर्णन किया गया है, जिसके अर्न्तगत जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकी खण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करवरद्वीप, मानुषोत्तर पर्वत, के अतिरिक्त वरुणवरद्वीप, वरुणवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरोदसागर, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, क्षोदवर द्वीप, क्षोदवर समुद्र, नंदीश्वर द्वीप, नंदीश्व समुद्र आदि का नामोल्लेख पूर्वक वर्णन कर आगे असंख्यात द्वीप समुद्र के पश्चात् अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत वाला स्वयंभूरमण समुद्र है ऐसा कथन किया है। सभी प्रतिपत्तियों में यह तीसरी प्रतिपत्ति सबसे बड़ी एवं विस्तृत है। चतुर्थ प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को पांच भागों एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय में विभक्त कर उनके जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति संस्थित काल और अल्पबहुत्व बतलाये गए हैं। पंचम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय इन छह भावों में विभक्त कर उनके स्थिति, संचिट्ठण, अन्तर और अल्पबहुत्व बतलाया गया है। तदनन्तर इसमें निगोद का वर्णन, स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर. और अल्पबहुत्व का भी कथन है। .... षष्ठ प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को सात भागों में नैरियक, तिर्यंच, तिर्यंचनी, मनुष्य-मनुष्यनी, देव-देवी में विभक्त कर। इनकी स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्प बहुत्व बतलाये गये हैं। सप्तम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को आठ भागों में प्रथम समय नैरियक, अप्रथम समय नैरियक, प्रथम समय तिर्यंच, अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव, अप्रथम समय देव कर इनकी स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया गया है। अष्टम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावर एवं बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय नौ भागों में विभक्त कर उनकी स्थिति संस्थिति अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया है। - नौवीं प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारी जीवों को प्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर प्रथम पंचेन्द्रिय तक पांच और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक पांच इस प्रकार दस भागों में विभक्त कर, इनकी स्थिति संस्थिति, अन्तर और अल्प बहुत्व का कथन किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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