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प्रथम प्रतिपत्ति - पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन
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उत्तर - हे गौतम! उन ,जीवों के छह प्रकार के संहननों में से एक भी संहनन नहीं है क्योंकि उनके शरीर में न तो हड्डी है, न नाड़ी है, न स्नायु है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं वे उनके शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं।
तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरा किं संठिया पण्णत्ता?
गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य, तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौनसा है ?
उत्तर - हे गौतम! उन जीवों के शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय। जो भवधारणीय शरीर वाले हैं वे हुंड संस्थानी हैं और जो उत्तर वैक्रिय शरीर वाले हैं वे भी । हुंड संस्थान वाले हैं। .
चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि लेसाओ, पंचेंदिया, चत्तारि समुग्घाया आइल्ला, सण्णी वि असण्णी वि, णपुंसगवेया, छप्पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ, तिविहा दिट्ठी, तिण्णि दंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते णियमा तिण्णाणी, तं जहा - आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी, जे अण्णाणी, ते अत्थेगइया दुअण्णाणी अत्थेगइया तिअण्णाणी, जे य दुअण्णाणी ते णिग्यमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य, जे तिअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य विभंगपाणी य, तिविहे जोगे, दुविहे उवओगे, छहिसिं आहारो, ओसण्णं कारणं पडुच्च वण्णओ कालाइं जाव आहारमाहारेंति, उववाओ तिरियमणुस्सेसु ठिई जहपणेणं' दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, दुविहा मरंति, उव्वदृणा भाणियव्वा जओ आगया णवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगइया दुआगइया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो! सेत्तं जेरइया॥३२॥
भावार्थ - उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएं, तीन लेश्याएं, पांच इन्द्रियां, आरंभ के चार समुद्घात होते हैं। वे जीव संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं। वे नपुंसकवेदी हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं। वे तीन दृष्टि वाले और तीन दर्शन वाले होते हैं। वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं - मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी। जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे
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