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________________ प्रस्तावना जैन दर्शन एवं इसकी संस्कृति का मूल आधार सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग प्रभु द्वारा कथित वाणी है। सर्वज्ञ अर्थात् पूर्णरूपेण आत्मद्रष्टा। सम्पूर्ण रूप से आत्म दर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं, जो समग्र जानते हैं, वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यही तो है कि इस दर्शन के प्रणेता सामान्य व्यक्ति न होकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु हैं, जो अट्ठारह दोष रहित एवं बारह गुण सहित होते हैं। यानी सम्पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् ही वाणी की वागरणा करते हैं, अतएव उनके द्वारा फरमाई गई वाणी न तो पूर्वापर विरोधी होती है, न ही युक्ति बाधक। उनके द्वारा कथित वाणी जिसे सिद्धान्त कहने में आता है, वे सिद्धान्त अटल, ध्रुव, नित्य, सत्य, शाश्वत एवं त्रिकाल अबाधित एवं जगत के समस्त जीवों के लिए हितकर, सुखकर, उपकारक, रक्षक रूप होते हैं, जैन दर्शन का हार्द निम्न आगम वाक्य में निहित है - सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्ताहिये। पेचाभाविय आगमेसिभद्ध सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अनुत्तरं सव्वदुक्खपावाण विउसमणं॥ __भावार्थ - समस्त जगत के जीवों की रक्षा रूप दया के लिए भगवान् ने यह प्रवचन फरमाय है। भगवान् का यह प्रवचन अपनी आत्मा के लिए तथा समस्त जीवों के लिए हितकारी है जन्मान्तर के शुभ फल का दाता है, भविष्य में कल्याण का हेतु है। इतना ही नहीं वरन् यह प्रवचन शुद्ध न्यायं युक्त मोक्ष के प्रति सरल प्रधान और समस्त दुःखों तथा पापों को शान्त करने वाला है। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्त्व ज्ञान, आत्म ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध आगम, शास्त्र अथवा सूत्र के रूप में प्रसिद्ध है। जिसे तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप में फरमाते हैं। उस अर्थ रूप में फरमाई गई वाणी को महान् प्रज्ञावान गणधर भगवन्त सूत्र रूप में गुन्थित करके व्यवस्थित आगम का रूप देते हैं। इसीलिए कहा गया है "अत्यं भासाइ अरहा सुत्तं गवति गणहरा निउणं।" आगम साहित्य की प्रमाणिकता केवल गणधर कृत होने से ही नहीं, किन्तु अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर प्रभु की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचन करते हैं। अंग बाह्य आगमों की रचना स्थविर भगवन्त करते हैं। स्थविर भगवन्त जो सूत्र की रचन करते हैं, वे दश पूर्वी अथवा उससे अधिक पूर्व के ज्ञाता होते हैं। इसलिए वे सूत्र और अर्थ की दृष्टि से अंग साहित्य के पारंगत होते हैं। अतएव वे जो भी रचना करते हैं, उसमें किंचित् मात्र भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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