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________________ तृतीय प्रतिपक्ति - मनुष्य उद्देशक - एकोरुक द्वीप के मनुष्यों का वर्णन ३१७ भुजमोचक (रत्नविशेष) नीलमणि, भंवरी, नील और काजल के समान काले, हर्षित भंवरों जैसे काले, स्निग्ध और निचित (इधर उधर बिखरे हुए) नहीं, जमे हुए, धुंघराले और दक्षिणावर्त्त होते हैं, लक्खणवंजणगुणाववेया - लक्षण व्यंजन गुणोपपेताः - लक्षण-स्वस्तिक आदि व्यञ्जन-मश तिलक आदि, गुण-क्षमा, गंभीरता आदि युक्त। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! एकोरुक द्वीप में मनुष्यों का आकार प्रकार आदि स्वरूप किस प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! एकोरुक द्वीप के मनुष्य अनुपम सौम्य और सुंदर रूप वाले हैं, उत्तम भोगों के सूचक लक्षणों वाले हैं, भोगजन्य शोभा से युक्त है। उनके अंग सुजात-जन्म से ही श्रेष्ठ और सर्वांग सुंदर हैं। उनके पांव सुप्रतिष्ठित और कछुए की तरह सुन्दर (उन्नत) हैं, उनके पांवों के तल लाल और कमल के पत्ते के समान मृदु-मुलायम और कोमल हैं उनके चरणों में पर्वत, नगर, समुद्र, मगर, चक्र, चन्द्रमा आदि के चिन्ह हैं, उनके चरणों की अंगुलियां क्रमशः बड़ी छोटी-प्रमाणोपेत और मिली हुई है, उनकी अंगुलियों के नख उठे हुए, पतले, ताम्रवर्ण जैसे एवं स्निग्ध-कांतिवाले हैं। उनके गुल्फ (टखने) प्रमाणोपेत घने और गूढ हैं, हरिणी और कुरुविंद (तृण विशेष) की तरह उनकी पिण्डलियां क्रमशः स्थूल, स्थूलतर और गोल हैं, उनके घुटने संपुट में रखे हुए की तरह गूढ है, उनकी जांधे हाथी की सूण्ड की तरह सुंदर, गोल और पुष्ट है, श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी की तरह उनकी चाल है, श्रेष्ठ घोड़े की तरह उनका गुह्यदेश सुगुप्त है, आकीर्णक जाति के घोड़े की तरह वे मलमूत्रादि के लेप से रहित हैं, उनकी कमर यौवन प्राप्त श्रेष्ठ.घोड़े और सिंह की कमर जैसी पतली और गोल है जैसे संकुचित की गई तिपाई मूसल, दर्पण का दण्डा और शुद्ध किये हुए सोने की मूंठ बीच में से पतले होते हैं उसी प्रकार उनकी कटि (मध्यभाग) पतली है, उनकी रोमराजि सरल-सम-सघन-सुंदर-श्रेष्ठ, पतली, काली, स्निग्ध, आदेय, लावण्यमय सुकुमार सुकोमल और रमणीय है, उनकी नाभि गंगा के आवर्त की तरह दक्षिणावर्त तरंग-त्रिलवी की तरह वक्र और सूर्य की उगती किरणों से खिले हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल है। उनकी कुक्षि (पेट के दोनों भाग) मत्स्य और पक्षी की तरह सुंदर और पुष्ट है : उनका पेट मछली की तरह कृश है, उनकी इन्द्रियां पवित्र हैं, उनकी नाभि कमल के समान विशाल है उनके पार्श्व भाग नीचे नमे हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुंदर हैं, जन्म से सुंदर है, परिमित मात्रा युक्त, स्थूल . और आनन्द देने वाले हैं। उनकी पीठ की हड्डी मांसल होने से अनुपलक्षित है, उनके शरीर कंचन की तरह कांति वाले, निर्मल, सुंदर और निरुपहत (रोग रहित-स्वस्थ) होते हैं, वे शुभ बत्तीस लक्षणों से युक्त होते हैं, उनका वक्षस्थल कंचन की शिलातल जैसा उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, पुष्ट, विस्तीर्ण और मोटा होता है, उनकी छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह अंकित होता है, उनकी भुजा नगर की अर्गला के समान लम्बी होती है, उनके बाहु शेष नाग के विपुल-लम्बे शरीर तथा उठी हुई अर्गला के समान लम्बे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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