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________________ तृतीय प्रतिपत्ति- मनुष्य उद्देशक दस वृक्षों का वर्णन मण्यङ्गा नामक वृक्ष ३०७ डाला हुआ, पमोयगे - प्रमोदकः आह्लादजनक, परमइट्टंगसंजुत्ते परमेष्टाङ्ग संयुक्त अत्यंत प्रियकारी द्रव्यों से युक्त । भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक में स्थान स्थान पर बहुत से चित्ररसा नामक वृक्ष हैं। जैसे सुगंधित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निकाले हुए दोष से रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी गुड़ शक्कर और मधु से मिश्रित, अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्ण गंध वाला परमान्न (कल्याणभोजन - खीर) निष्पन्न किया जाता है अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों (रसोइयों) द्वारा निष्पादित चार उकालों से (कल्पों से) सिका हुआ, कलम जाति के चावल जिनका एक एक दाना वाष्प से सीझ कर मृदु (कोमल) हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा - मसाले डाले गये हैं, इलाइची आदि भरपूर सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण गंध रस स्पर्श से युक्त होकर बलवीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शांत करने वाला है, प्रधान रूप से चासनी रूप बनाये हुए गुड़, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है जिसका अन्दरुनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है जो अत्यंत प्रियकारी द्रव्यों से युक्त है ऐसा परम आनंददायक परमान्न होता है उसी प्रकार की भोजनविधि से युक्त वे चित्ररसा नामक वृक्ष होते हैं। वृक्ष अनेक प्रकार के विस्रसा परिणाम से युक्त होते हैं। वे कुश-कांस आदि से रहित मूल वाले और अतीव अतीव शोभा से शोभायमान होते हैं। : Jain Education International - - ८. मण्यङ्गा नामक वृक्ष एगूरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से हारद्धहार- वट्टणगमउड - कुंडलवामुत्तग- हेमजाल मणिजाल- कणगजालग सुत्तगउच्चिइय-कडगा - खुडिय-एगावलिकंठसुत्तमंगरिम- उरत्थगेवेज्ज -सोणिसुत्तग चूलामणि - कणग-तिलगफुल्ल-सिद्धत्थय- कण्णवालिससिसूर - उसभ-चक्कग तलभंग तुडिय हत्थिमालगवलक्खदीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केऊरवलय पालंब अंगुलेज्जगकंचीमेहला कलावपयरग ( पाडिहारिया) पायजालघंटिय-खिंखिणिरयणोरुजालत्थिगियवर - णेउरचलणमालिया कणगणिगरमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भूसणविही बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए भूसणविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्ध रुक्खमूला जाव चिट्ठति ८ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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