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________________ २७८ जीवाजीवाभिगम सूत्र विवेचन - हरितकाय के तीन भेद हैं - जलज, स्थलज और उभयज। प्रत्येक की १००-१०० उपजातियां होने से हरितकाय के कुल तीन सौ अवान्तर भेद होते हैं। बैंगन आदि बीट वाले फलों के हजारों प्रकार कहे गये हैं और नालबद्ध फलों के भी हजारों प्रकार हैं। ये सब तीन सौ भेद और अन्य भी तथाप्रकार के फलादि सभी का समावेश हरितकाय में होता है। हरितकाय का वनस्पतिकाय में और वनस्पतिकाय का स्थावर जीवों में समावेश होता है। इस प्रकार सूत्र से स्वयं समझने या दूसरों द्वारा समझाया जाने पर, अर्थालोचन रूप से विचार करने से, युक्ति द्वारा गहन चिंतन करने से और पूर्वापर विचारणा से सभी संसारी जीवों का त्रसकाय और स्थावरकाय में समावेश होता है। इस विषय में आजीव दृष्टांत समझना चाहिये अर्थात् जिस प्रकार 'जीव' शब्द से त्रस स्थावर, सूक्ष्म बादर, पर्याप्त । अपर्याप्त सभी जीवों का समावेश हो जाता है उसी प्रकार इन चौरासी लाख जीवयोनि से समस्त संसारी .: जीवों का समावेश समझ लेना चाहिये। चौरासी लाख जीवयोनि - स्थावर जीवों की ५२ लाख जीवयोनियां - ७ लाख पृथ्वीकाय, ७ लाख अप्काय, ७ लाख तेउकाय, ७ लाख वायुकाय, १० लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय और चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय। त्रस जीवों की ३२ लाख जीवयोनियां - दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेइन्द्रिय, दो लाख चउरिन्द्रिय, चार लाख देवता, चार लाख नारकी, चार लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय और चौदह लाख मनुष्य। इस तरह स्थावर की ५२ लाख और त्रस की ३२ लाख मिला कर कुल ८४ लाख जीवयोनियां कही गई है। कुल कोटियां - एक करोड़ साढे सित्याणु लाख जातिकुल कोटियां होती हैं जो इस प्रकार हैं - । पृथ्वीकाय की १२ लाख, अप्काय की ७ लाख, तेउकाय की तीन लाख, वायुकाय की सात लाख, वनस्पतिकाय की २८ लाख, बेइन्द्रिय की सात लाख, तेइन्द्रिय की आठ लाख, चउरिन्द्रिय की नौ लाख, जलचर की १२॥ लाख, स्थलचर की दस लाख, खेचर की बारह लाख, उरपरिसर्प की दस लाख, भुजपरिसर्प की नौ लाख, नारकी की २५ लाख, देवता की २६ लाख, मनुष्य की बारह लाख - ये कुल मिला कर एक करोड़ साढे सित्याणु लाख कुल कोटियां हैं। . विमानों के नाम अस्थि णं भंते! विमाणाई सोत्थियाणि, सोत्थियावत्ताई सोत्थियपभाई सोत्थियकंताई सोत्थियवण्णाइं सोत्थियलेस्साइं सोत्थियज्झयाई सोत्थियसिंगाराई सोत्थियकूडाइं सोत्थियसिट्ठाइं सोत्थुत्तर वडिंसगाई ? हंता अथि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या स्वस्तिक नाम वाले, स्वस्तिकावर्त नाम वाले, स्वस्तिकप्रभ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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