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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक - नैरयिकों की स्थिति कठिन शब्दार्थ - हिमाणि - हिम, हिमपुजाणि हिम पुज, हिमपडलाणि हिने पटल, हिमपंडलपुजाणि मलमपटल पुज; तुसाराणि प्राप्तुषार, तुसारपुजाणि - तुषार पुहिमकुण्डाणि - हिमकुण्ड, हिमकुंडपुंजाणि हिमकुंड पुंची। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! शीत वेदना वाले नरकों में नैरथिक जीक कैसी शील वेदमा का अनुभव करते हैं. उतरन गौतम! जैसे कोई लहर का लड़का जो तरूपा युगवान बलवान् याब शिल्प युक्त हो, एक बड़े लोहे के पिण्ड को जो पानी के छोटे घड़े के बराबर हो लेकर उसे तपाः जापा कर कूट-कूट कर एक दिनी दो दिला तीन दिन उत्कृष्ट एक मासातक पूर्ववह सब क्रियाएं करता रहे तथा उस उष्ण और पूरी तरह से उष्ण उस गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना के द्वारा उसे शीत वेदनीय नरकों में इस भावना से डाले कि मैं अभी उन्मेष निमेषु मात्र समय में उसे निकाल लूंगा परन्तु वह क्षण भर में उसे फूटता हुआ, गलता हुआ, नष्ट होता हुआ देखता है, वह उसे अस्फुटित रूप से विकालने में समर्थानही होता हैइत्यादि वर्षमा पूर्व केसमानाकह देना चाहिये तथा मस्तहाथी का उदाहरण भी वैसा ही कह देना चाहिये यावतावह ससोबतो निकल कर सुखपूर्वक विचमा हैसी प्रकार हे गौतम! असत् कल्पना से शीत वेदना वाले नरकों से निकला हुआ नैयिक इस मनुष्य लोक में शीत प्रधान जो स्थान हैं जैसे कि - हिंम, हिमपूज, हिमपटल, हिमपटलपुंज, तुषार, तुषारपुंज, PHY . आरशाता आदि को देखता है, देख कर उनम प्रश करता है वह वहां अप Phonetics अनुभव करता हुआ नींद लेता है या खड़े खड़े ऊँघता है यावत् गरम होकर अति उष्ण .कर वहां से धीरे धीरे निकलता हुआ साता-सुख का अनुभव करता है। हे गौतम! शीत वेदना वाले नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीत वेदना का अनुभव करते हैं। विवचन- प्रस्तुत सूत्र में नरयिकों की शति वेदना का वर्णन किया गया है। SNESSwams जैसे सदी में पाव फट जात है वस ही नरक का सदा सलाह का गाला भाबिखर जाता है Pातिका रयिकों की स्थिति इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहण्णेफा वि उनकोसेण विभिापियवा जात अहेसत्तमाए॥९०॥ AMITIवार्थ प्रश्न हे भगवन् ! इस रप्रभा पृथ्वी के नैरपिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उत्तर - हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक के नैरयिकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रज्ञापना के स्थिति पद के अनुसार कह देनी चाहिए The 1 HOUC Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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