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________________ २४४ जीवाजीवाभिगम सूत्र तमःप्रभा. विषयक प्रश्न ? हे गौतम! तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिक शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना नहीं वेदते और शीतोष्ण वेदना भी नहीं वेदते हैं। तमस्तमःप्रभा पृथ्वी विषयक प्रश्न ? हे गौतम! अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिक परम शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना नहीं वेदते और शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। . विवेचन - क्षेत्र स्वभाव से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा इन तीन नरकों में उष्णवेदना होती है। चौथी नरक में ऊपर के अधिक नरकावासों में उष्ण वेदना होती है और नीचे वाले नरकावासों में शीत वेदना होती है। पांचवीं नरक के अधिक नरकावासों में शीत वेदना और थोड़ों में उष्ण वेदना होती है। छठी और सातवीं नरक में शीत वेदना ही होती है। यह वेदना नीचे वाले नरकों में अनन्तगुणी तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम होती है। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या केरिसयं णिरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति? गोयमा! ते णं तत्थ णिच्चं भीया णिच्चं तसिया णिच्चं छुहिया णिच्चं उव्विग्गा णिच्चं उवप्पुया णिच्चं वहिया णिच्चं परममसुभमउलमणुबद्धं णिरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति, एवं जाव अहेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तं जहा - काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे, तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किच्चा अप्पइट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववण्णा, तं जहा - १ रामे जमदग्गिपुत्ते, २ दढाऊ लंच्छइपुत्ते, ३ वसू उवरिचरे, ४ सुभूमे कोरव्वे, ५ बंभदत्ते चुलणिसुए, ते णं तत्थ णेरइया जाया कालाकालो० जाव परम किण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, ते णं तत्थ वेयणं वेदेति उज्जलं । विउलं जाव दुरहियासं॥ : ___कठिन शब्दार्थ - णिच्चं - नित्य, भीया - डरे हुए, तसिया - त्रसित, छुहिया - क्षुधित-भूखे, उविग्गा- उद्विग्न, उवष्णुया- उपद्रवग्रस्त वहिया - वधिक, क्रूर परिणाम वाले, परममसुभमउलमणुबद्धंपरममशुभमतुलमनुबद्धम्-परम अशुभ रूप एवं जिसकी तुलना नहीं की जा सके ऐसे, अनुबद्ध- निरन्तर परंपरा से ही अशुभ रूप.से चले आये हुए, णिरयभवं - नरक के भव को, पच्चणुभवमाणा - अनुभव करते हुए, दंडसमादाणेहिं - दण्ड समादानैः-दण्ड समादानों से-सर्वोत्कृष्ट प्राणी हिंसा आदि पापकर्मों के कारण। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरक भव का अनुभव करते हुए विचरते हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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