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________________ '२२६ जीवाजीवाभिगम सूत्र भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास गंध की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? . उत्तर - हे गौतम! जैसे सर्प का मृत कलेवर हो, गाय का मृत कलेवर हो, कुत्ते का मृत कलेवर हो, बिल्ली का मृत कलेवर हो, मनुष्य का मृत कलेवर हो, भैंस का मृत कलेवर हो, चूहे का मृत कलेवर हो, घोड़े का मृत कलेवर हो, हाथी का मृत कलेवर हो, सिंह का मृत कलेवर हो, व्याघ्र .का मृत कलेवर हो, भेडिये का मृत कलेवर हो, चीते का मृत कलेवर हो, जो धीरे धीरे फूल कर सड़ गया हो और जिसमें से दुर्गन्ध फूट रही हो, जिसका मांस सड-गल गया हो, जो अत्यंत अशुचि रूप होने से कोई उसके पास फटकना तक न चाहे ऐसा घृणोत्पादक और बीभत्स दर्शन वाला हों और जिसमें कीड़े . बिलबिला रहे हों, क्या ऐसे दुर्गन्ध वाले नरकावास हैं ? हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, इससे अधिक अनिष्टतर, अकांततर यावत् अमनामतर उन नरकावासों की गंध है। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा केरिसया फासेणं. पण्णत्ता? . गोयमा! से जहाणामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंबचीरियापत्तेइ वा सत्तग्गेइ वा कुंतग्गेइ वा तोमरग्गेइ वा णारायग्गेइ वा सूलग्गेइ वा लउलग्गेइ वा भिंडिमालग्गेइ वा सूइकलावेइ वा कवियच्छूइ वा विंचुयकंटएइ वा इंगालेइ वा जालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चीइ वा अलाएइ वा सुद्धागणीइ वा भवे एयारूवे सिया? __णो इणढे समढे गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा एत्तो अणि?तरगा चेव जाव अमणामतरगा चेव फासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए ॥८३॥ कठिन शब्दार्थ - खुरपत्तेइ - क्षुरप-उस्तरे की धार का, कलंबचीरियापत्तेइ - कदम्बचीरिका (तृण विशेष) के पत्र-अग्रभाग का, सूइकलावेइ - सूचिकलाप-सूइयों के समूह के अग्रभाग का, विंचुयकंटएइबिच्छू का डंक, मुम्मुरेइ - मुर्मुर (भोभर की अग्नि), अलाएइ - अलात (जलती लकड़ी) सुद्धागणीइशुद्धाग्नि-लोह पिण्ड की अग्नि। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों का स्पर्श कैसा कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! जैसे तलवार की धार का, उस्तरे की धार का, कदम्बचीरिका के अग्रभाग का, शक्ति (शस्त्र विशेष) के अग्रभाग का, भाले के अग्रभाग का, तोमर के अग्रभाग का, बाण के अग्रंभाग का, शूल के अग्रभाग का, लगुड.के अग्रभाग का, भिण्डीपाल के अग्रभाग का, सूइयों के समूह के अग्रभाग का, कपिकच्छु (खुजली पैदा करने वाली वल्ली), बिच्छु का डंक, अंगार, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्धाग्नि इन सब का जैसा स्पर्श होता है, क्या नरकावासों का स्पर्श भी ऐसा है ? हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इनसे भी अधिक अनिष्टतर यावत् अमनामतर उनका स्पर्श होता है। इसी तरह अधःसप्तम पृथ्वी तक के नरकावासों के स्पर्श के विषय में कह देना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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