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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - प्रथम नैरयिक उद्देशक - नरकावासों की संख्या - १९३ रत्नकाण्ड आदि रत्न निर्मित होते हुए भी नैरयिक स्थानों में रत्नों की प्रभा नहीं होने से नैरयिक स्थानों (नरकावासों व कुम्भियों) को 'णिच्चंधयारतमसा' बताया गया है जहां नैरयिक है वहां उनकी प्रभा नहीं है किन्तु जहां भवनपति हैं वहां उन रत्नों की प्रभा है। क्योंकि सभी जगह रत्न समान नहीं है किन्तु जैसे हीरे व कोयले दोनों पृथ्वीकाय होते हुए भी समान नहीं है वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिये। पंकबहुल काण्ड - ईंट की चूरी का पंक-कीचड़ जैसा क्षेत्र दिखाई देता है। .. अपबहुल काण्ड - बहुतं पानी जैसे पुद्गलों की अधिकता होती है। रत्नकाण्ड के १६ भेदों में 'जातरूप (स्वर्ण)' और 'रजत (चांदी)' को भी रत्नों के नामों में बताया है। . दूसरी नरक पृथ्वी शर्कराप्रभा से लेकर अधःसप्तम नरक पृथ्वी तक के कोई विभाग नहीं है। सब एक ही प्रकार की है। नरकावासों की संख्या इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया णिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता? गोयमा! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, इमा गाहा अणुगंतव्वा - तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव तिण्णि य हवंति। पंचूणसयसहस्सं पंचेव अणुत्तरा णरगा॥१॥ - जाव अहेसत्तमाएं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणरगा पण्णत्ता तं जहा - काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइट्ठाणे॥७०॥ कठिन शब्दार्थ - णिस्थावास - नरकावास, सयसहस्सा - लाख, अणुत्तरा - अनुत्तर, महइमहालया - बहुत बड़े। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। इस गाथा के अनुसार सातों नरकों में नरकावासों की संख्या समझनी चाहिये - प्रथम पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं में पांच अनुत्तर महानरकावास हैं। अधःसप्तम पृथ्वी में जो पांच बहुत बड़े अनुत्तर महानरकावास कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. काल २. महाकाल ३. रौरव ४. महारौरव और ५. अप्रतिष्ठान। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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