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________________ २. जीवाजीवाभिगम सूत्र . द्वादशांग वाणी भूतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्यत् काल में भी रहेगी। अतएव यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। नंदी सूत्र में भी कहा है - ____ "एयं दुवालसंग गणिपिडगं ण कया वि णासी, ण कयाइ वि ण भवइ, ण कया वि ण भविस्सइ। धुर्व णिचं सासर्य".. - यह द्वादशांग गणिपिटक पूर्वकाल में नहीं था, ऐसा नहीं; वर्तमानकाल में नहीं है ऐसा भी नहीं; भविष्य में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। द्वादशांग का अर्थ है - बारह अंग सूत्र। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. आचाराङ्ग २. सूयगडाङ्ग ३. ठाणाङ्ग ४. समवायाङ्ग ५. भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) ६. ज्ञाताधर्म कथा ७. उपासकदशाङ्ग ८. अन्तगडदशाङ्ग ९. अनुत्तरोववाई १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र १२. दृष्टिवाद। इन बारह अंगों में दृष्टिवाद बत विशाल है अथवा यों कहना चाहिये कि दृष्टिवाद, ज्ञान का खजाना है अथाह और अपार सागर है। इस पांचवें आरे में दृष्टिवाद का ज्ञान नहीं है अर्थात् सम्पूर्ण दृष्टिवाद का विच्छेद हो चुका है। अब तो ग्यारह अंग सूत्र ही उपलब्ध होते हैं। ___अंगों की तरह उपांगों की संख्या भी बारह है। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. उववाई २. रायपसेणी ३. जीवाजीवाभिगम ४. पण्णवणा ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६. चन्द्र प्रज्ञप्ति ७. सूर्य प्रज्ञप्ति ८. निरयावलिया ९. कप्पवडंसिया १०. पुफिया ११. पुप्फचूलिया और १२. वण्हिदसा सूत्र। . प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम तृतीय उपांग है। यह स्थानांग नामक तीसरे अंग का उपांग है। यह श्रुत स्थविरों द्वारा रचित है अतः अनंगप्रविष्ट श्रुत है। जो श्रुत अस्वाध्याय को टाल कर दिन-रात के चारों प्रहर में पढ़े जा सकते हैं वे उत्कालिक हैं जैसे - दशवैकालिक आदि और जो श्रुत दिन और रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर में ही पढ़े जाते हैं वे कालिक श्रुत हैं जैसे उत्तराध्ययन आदि। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम सूत्र उत्कालिक सूत्र है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है। अभिगम का अर्थ ज्ञान है। जिसमें जीव और अजीव का ज्ञान है वह जीवाजीवाभिगम है। मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दृष्टि से यह सूत्र 'जीवाभिगम' के नाम से भी जाना जाता है। प्रस्तुत आगम में नौ प्रतिपत्तियाँ (प्रकरण) हैं। प्रथम प्रतिपत्ति में जीव और अजीव का निरूपण किया गया है। जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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