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________________ द्वितीय प्रतिपत्ति - स्त्रीवेद कर्म की बंध स्थिति ********************************************************* विवेचन - समस्त स्त्रियों का पांचवां अल्पबहुत्व इस प्रकार हैं- सभी स्त्रियों में सबसे कम अंतरद्वीप की अकर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियाँ हैं, उनसे देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र की अकर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियाँ संख्यातगुणी और स्व क्षेत्र की अपेक्षा दोनों तुल्य है। उनसे हरिवर्ष रम्यकवर्ष क्षेत्र की अकर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियाँ परस्पर तुल्य और संख्यात गुणी हैं। उनसे हैमवत हैरण्यवत क्षेत्र की अकर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियाँ परस्पर तुल्य और संख्यात गुणी अधिक हैं। उनसे भरत ऐरवत क्षेत्र की कर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियां परस्पर तुल्य और संख्यात गुणी हैं। उनसे पूर्वविदेह पश्चिम विदेह क्षेत्र की कर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियां परस्पर तुल्य और संख्यात गुणी अधिक हैं । पूर्वविदेह पश्चिम विदेह की कर्मभूमिज मनुष्य स्त्रियों से वैमानिक देवस्त्रियाँ असंख्यातगुणी कही गई है क्योंकि वे असंख्यात श्रेणी आकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने प्रमाण वाली है। वैमानिक देवियों से भवनवासी देवियाँ असंख्यातगुणी हैं । भवनवासी देवियों से खेचर तिर्यंच स्त्रियां असंख्यातगुणी अधिक कही गई है क्योंकि प्रतर के असंख्यातवें भाग में रहे हुए असंख्यात श्रेणी के आकाश प्रदेशों की जितनी राशि होती है उतनी प्रमाण खेचर स्त्रियां कही गई हैं। उनसे स्थलचर तिर्यंच स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं क्योंकि संख्यात गुण बड़े प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के आकाश प्रदेश जितनी स्थलचरस्त्रियाँ हैं। उनसे जलचरस्त्रियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के. आकाश प्रदेश जितनी हैं। जलचर स्त्रियों से वाणव्यंतर देव स्त्रियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि संख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण एक प्रदेशों की श्रेणी के जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जो राशि बचती है उतनी कही गई है । वाण व्यंतर देवियों से ज्योतिषी देवियाँ संख्यातगुणी हैं इसका स्पष्टीकरण पूर्व में दिया जा चुका है। इस प्रकार यह समस्त स्त्रियों का पांचवां अल्पबहुत्व हुआ। अब सूत्रकार स्त्रीवेद की स्थिति का निरूपण करते हैं - . स्त्रीवेद कर्म की बंध स्थिति इत्थिवेयस्स णं भंते! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दिवड्डो, सत्तभागो पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागेणं ऊणो उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवम कोडाकोडीओ, पण्णरस वाससयाई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेओ ॥ कठिन शब्दार्थ - अबाहा अबाधा, अबाहूणिया - अबाधाकाल से रहित, कम्मणिसेओ कर्म निषेक-कर्म दलिकों की रचना । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! स्त्रीवेद कर्म की बंध स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! स्त्रीवेद कर्म की बंध स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम १ ॥ Jain Education International १३९ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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