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________________ द्वितीय प्रतिपत्ति - स्त्री वेद की कायस्थिति विवेचन - सामान्य रूप से मनुष्य स्त्री का अवस्थान काल क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का कहा गया है। इसका स्पष्टीकरण तिर्यंच स्त्री के समान समझ लेना चाहिए। धर्माचरण ( चारित्र धर्म) की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन (कुछ कम) पूर्व कोटि की स्थिति कही गयी है । सर्व विरति परिणाम का तदावरण कर्म के क्षयोपशम की विचित्रता से एक समय मात्र काल ही संभव है तदनन्तर मरण हो जाने से सर्व विरति परिणाम का प्रतिपात हो जाता है। चरम श्वासोच्छ्वास पर्यंत चारित्र पालने कारण संपूर्ण चारित्र काल पूर्व कोटि कहा है । आठ वर्ष रूप देश से न्यून होने के कारण धर्माचरण की अपेक्षा उत्कृष्ट अवस्थान काल देशोन पूर्व कोटि कहा गया है । भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र की कर्मभूमिज मनुष्य स्त्री मनुष्य स्त्री के रूप में लगातार जघन्य अंतर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट देशोन पूर्व कोटि अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। उत्कृष्ट अवस्थान काल इस प्रकार समझना चाहिए १२९ पूर्व कोटि आयु वाली किसी पूर्व विदेह या पश्चिम विदेह की स्त्री को किसी ने भरतादि क्षेत्र में एकांत सुषमादि काल के समय संहृत किया, यद्यपि वह महाविदेह में उत्पन्न हुई तब भी भरत आदि क्षेत्र में आने के कारण भरत आदि की कही जाती है। वह स्त्री पूर्व कोटि तक जीवित रह कर अपनी आयु का क्षय होने पर वहीं भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषमादि काल के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई । इस अपेक्षा से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का उसका अवस्थान काल हुआ। धर्माचरण की अपेक्षा अवस्थान काल कर्मभूमिज मनुष्य स्त्री के समान समझ लेना चाहिये । · पुव्वविदेह अवरविदेहित्थी णं खेत्तं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडीपुहुत्तं, धम्मचरणं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । भावार्थ - पूर्व विदेह पश्चिम विदेह की स्त्रियों का अवस्थान काल क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व तथा धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है । : अकम्मभूमियमणुस्सित्थी णं भंते! अकम्मभूमिग मणुस्सित्थि त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्य जहण्णेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं । संहरणं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियाई । - भावार्थ - प्रश्न हे भगवन्! अकर्मभूमिज मनुष्य स्त्री अकर्मभूमिज मनुष्य स्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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