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________________ प्रथम प्रतिपत्ति - देवों का वर्णन १०५ देवलोक में पद्म लेश्या। छठे देवलोक से नवग्रैवेयक तक शुक्ल लेश्या और पांच अनुत्तर विमान में परम शुक्ल लेश्या होती है। ८.इन्द्रिय द्वार - देवों में पांचों इन्द्रियाँ होती हैं। ९. समुद्घात द्वार - देवों में पांच समुद्घात होते हैं - वेदनीय, कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय और तैजस। १०. संज्ञी द्वार - देव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं। ११. वेदद्वार - ये स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं किन्तु नपुंसकवेदी नहीं होते। १२. पर्याप्ति द्वार - देवों में पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ पाती है। भाषा और मन ये दोनों पर्याप्तियाँ शामिल कुछ ही अन्तर से.बंधती है अत: पांच पर्याप्तियाँ ही कही है। १३. दृष्टि द्वार - देवों में तीनों दृष्टियाँ पाती है। १४. दर्शन द्वार - देवों में दर्शन पावे तीन-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन। १५. ज्ञान द्वार - देव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले होते हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान। जो अज्ञानी होते हैं वे दो अज्ञान वाले भी होते. हैं और तीन अज्ञान वाले भी होते हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे मति अज्ञान श्रुत अज्ञान वाले हैं। जो असन्नियों से आकर उत्पन्न होते हैं उनमें दो अज्ञान होते हैं। १६. योग द्वार - देव तीनों येग वाले होते हैं। १७. उपयोग द्वार - देवों में साकार और अनाकार दोनों उपयोग होते हैं। - १८. आहार द्वार - देव छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। १९. उपपात द्वार.- देव, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। २०. स्थिति द्वार - देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। २१. मरण द्वार - देव मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। २२. च्यवन द्वार - देव मर कर (च्यव कर) पृथ्वी, पानी, वनस्पतिकाय में गर्भज और संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। . २३. गति आगति द्वार - देव दो गति (मनुष्य, तिर्यंच) से आने वाले और इन दोनों गतियों में जाने वाले होते हैं। इस प्रकार देवों का वर्णन हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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