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________________ प्रथम प्रतिपत्ति - देवों का वर्णन . १०१. इस रत्नप्रभा पृथ्वी का प्रथमकाण्ड रत्नकाण्ड कहलाता है वह एक हजार योजन का मोटा है उसमें से १०० योजन ऊपर और १०० योजन नीचे छोड़ कर बीच के आठ सौ योजन में इन वाणव्यन्तरों के भवन हैं तथा तिरछा लोक में इनके नगर हैं जैसे कि जम्बूद्वीप के पूर्व दिशा के अन्त में आये हुए विजयद्वार के स्वामी विजयदेव की राजधानी यहां से असंख्य द्वीप समुद्र उल्लंघन करने के बाद असंख्यातवें जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में है। वह बारह हजार योजन लम्बी चौड़ी है। वाणव्यंतरों के आवास तीनों लोक में हैं। ऊर्ध्वलोक में पण्डकवन आदि में हैं। प्रश्न - ज्योतिषी किसे कहते हैं ? . उत्तर - जो देव ज्योति यानी प्रकाश करते हैं वे ज्योतिषी कहलाते हैं। ज्योतिषी शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "द्योतयन्ति-प्रकाशयन्ति जगत् इति ज्योतिषी विमानानि। यदिवा द्योतयन्ति शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डल कल्पैः सूर्यादिमण्डलैः प्रकाशयन्ति इति ज्योतिषोदेवाः सूर्योदयः तथाहि-सूर्यस्य सूर्याकारं मुकुटाग्रभागे चिह्नं चन्द्रस्य चन्द्राकारं नक्षत्रस्य नक्षत्राकारं ग्रहस्य ग्रहाकारं तारकस्य तारकाकारं तैः प्रकाशयन्ति इति, आह च तत्त्वार्थभाष्यकृत-द्योतयन्ति इति ज्योतीषिविमानानि तेषु भवा ज्योतिष्का: यदि वा ज्योतिषो-देवा:ज्योतिष एव ज्योतिष्काः, मुकुटैः शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभा मण्डलैसज्ज्वलैः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाणां मण्डलैः यथास्वं चिह्नः विराजमाना धुतिमन्तो ज्योतिष्का भवन्ति इति।" - अर्थ - जो जगत् को प्रकाशित करते हैं उन्हें ज्योतिषी कहते हैं अथवा सिर पर धारण किये हुए मुकुट की प्रभा से एवं सूर्यादि मण्डलों से प्रकाश करते हैं उनको ज्योतिषी देव कहते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य में भी इसी प्रकार की व्याख्या की गई है - इनके चिह्न इस प्रकार हैं - सूर्य के मुकुट में सूर्य का, इसी प्रकार चन्द्र के मुकुट में चन्द्र का, नक्षत्र के मुकुट में नक्षत्र का, ग्रह के मुकुट में ग्रह का और ताराओं के मुकुट में ताराओं का चिह्न है। इन मुकुटों के चिन्ह से जो शोभित हैं उनको ज्योतिषी देव कहते हैं। ज्योतिषी देवों के पांच भेद हैं। यथा - चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा। प्रश्न - वैमानिक देव किसे कहते हैं? उत्तर - विमानों में रहने वाले देवों को वैमानिक देव कहते हैं। वैमानिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "विविध मानयन्ते-उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः" ___अर्थ - पुण्यवान् जीव जिनका उपभोग करते हैं अथवा जिनमें रहते हैं उनको वैमानिक कहते हैं। इनके दो भेद हैं। यथा - कल्पोपपन्न और कल्पातीत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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