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________________ [5] 林************本本本中中中中中中中中中中中******************** *** "इस पाठ के आगे ‘एगे एवमाइक्खंति वयं पुण एवं वयामो' करके सूत्रकार का अपना मंतव्य दिखाने वाला पाठ कहीं छूट गया लगता है। सूत्रकार के किसी वचन में मांस भक्षण प्रेरक कोई मिथ्या उपदेश संभव नहीं है।" ___निघण्टु आदि शब्दकोष में बहुत से मंस सूचक शब्दों के वनस्पति परक अर्थ किये हैं. यहाँ भी उसी प्रकार का अर्थ संभव है। क्योंकि पंचेन्द्रिय घात और मांस का सेवन नरक गति में जाने का कारण होने से तीर्थंकर प्रभु ऐसी प्ररूपणा नहीं कर सकते हैं। ... सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों सूत्रों के पाठ कुछ श्लोकों के अलावा प्रायः समान है। इसका समाधान पूज्य स्वर्गीय गुरुदेव बहुश्रुत पण्डित समर्थमलजी म. सा. ने इस प्रकार फरमाया कि - जैसे सूर्यप्रज्ञप्ति की दो नकले पड़ी हों, उसमें से एकाध पाना चन्द्रप्रज्ञप्ति का शामिल हो गया हो, उस पन्ने को देख कर सूर्य प्रज्ञप्ति पर ही चन्द्र प्रज्ञप्ति नाम लगा दिया हो, फिर नकलें होकर प्रचलित हो गई हो। अथवा शास्त्र लिपिबद्ध करते समय इन दोनों सूत्रों को भिन्न-भिन्न साधु द्वारा लिपि बद्ध करते हुए एक तरफ एक सूत्र और दूसरी तरफ दूसरे सूत्र के बदले भ्रांति से उसी को लिपि बद्ध कर दिया हो अथवा दीमक आदि पाने को खा जाने से दूसरे सूत्र की भ्रांति में दूसरे का ही लगा दिया हो, इत्यादि कारण हो सकते हैं वस्तुतः यह विशेषज्ञों के खोज का विषय है। -- इन सूत्रों में मंडल गति संख्या, सूर्य का तिर्यक् परिभ्रमण, प्रकाश्य क्षेत्र परिमाण, प्रकाश संस्थान, लेश्या प्रतिघात, ओजःसंस्थिति, सूर्यावरक उदय संस्थिति, पौरुषी छाया प्रमाण योगचररुप, संवत्सरों के आदि और अंत, संवत्सर के भेद, चन्द्र की वृद्धि अपवृद्धि, ज्योत्सना प्रमाण, शीघ्र गति निर्णय, ज्योत्सना लक्षण, च्यवन और उपपात, चन्द्रसूर्य आदि की ऊंचाई, उनका परिमाण, नक्षत्रों एवं अमुक नक्षत्र में अमुक भोजन ग्रहण करने आदि का अधिकार। इनकी रचना गद्य-पद्य दोनों के मिश्रण से हुई है। इनमें एक अध्ययन, २० प्राभृत और उपलब्ध मूल पाठ २२०० श्लोक परिणाम है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004193
Book TitleChandra Pragnapti Surya Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandrapragnapti
File Size15 MB
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