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________________ चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र ४६ तंजहा - अस्सेसा महा पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता साई, विसाहाइया णं सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं०-विसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो पुव्वासादा उत्तरासादा अभिई, सवणाइया णं सत्त णवखत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं ० -सवणो धगिट्ठा सय भिसया पुव्वापोट्ठवया उत्तरापोट्ठवया रेवई अस्सिणी, एए एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो- ता अभिईआइया णं सत्त णवखत्ता पुव्वदारिया प०, तंजहा - अभिई सवणो धणिट्ठा सयभिसया पुव्वापोट्ठवया उत्तरापोट्ठवया रेवई, अस्सिणीआइया णं सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं०-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणव्वसू, पुस्साइया णं सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं० - पुस्सो अस्सेसा महा पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता, साईआइया णं सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं-साई विसाहा अणुराहा जेट्ठा मूले पुव्वासाढा उत्तरासाढा || ५७ ॥ दसमस्स पाहुडस्स एकवीसइमं पाहुडपाहुड समत्तं ।। १०-२१ ॥ ता कहं ते णक्खत्तविजए आहिएति वएजा ? ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेत्रेणं०, ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, दो सूरिया तविंसु वा तवेंति वा तविस्संति वा, छप्पणं णक्खत्ता जोयं जोएंसु वा ३, तंजहा - दो अभीई दो सवा दो धणिट्ठा दो सयभितया दो पुव्वापोट्ठवया दो उत्तरापोट्ठवया दो रेवई दो अस्सिणी दो भरणी दो कत्तिया दो रोहिणी दो संठाणा दो अद्दा दो पुणव्वसू दो पुस्सा दो अस्सेसाओ दो महा दो पुव्बाफग्गुणी दो उत्तराफग्गुणी दो हत्था दो चित्ता दो साई दो' विसाहा दो अणुराहा दो जेट्ठा दो मूला दो पुव्वासाढा द्वो उत्तरासादा, ता एएसि पं छप्पण्णाए णक्खताणं अस्थि णक्खत्ता जे णं णव ते सत्तावीसं च सत्तट्टिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं 'जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं तीसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जायं जोएंति, अत्थि णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण संद्धिं जोयं जोएंति, ता एएसि णं छप्प-करे णक्खत्ता जे णं णव मुहुत्ते सत्तासं च सत्तट्ठिभागे मुहुस्स चंदे सद्धिं जोयं जोएंति, कयरे णक्खत्ता जेणं पण्णरसमुहुते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, कयरे णक्खत्ता जे णं तीस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जाएंति १ ता एएसि णं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004193
Book TitleChandra Pragnapti Surya Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandrapragnapti
File Size15 MB
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