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________________ निवेदन जैन आगम साहित्य गहन, गूढ़ एवं सूक्ष्म हैं इसमें आध्यात्मिकता की उत्कर्ष भूमिका तक पहुँचाने के साधनों का वर्णन मिलता है, तदनुसार इसकी विषय सामग्री भी विशाल एवं तलछट तक पहुँच कर विभिन्न तथ्यों को उजागर करने वाली है। इस रत्नाकर में अनेक प्रकार रत्न समाहित हैं, जिसके तल को स्पर्श करने पर अनेक प्रकार के रत्न प्राप्त हो सकते हैं। इसमें जहाँ एक ओर जीव- अजीव, लोक- अलोक, आचार विचार और इससे सम्बन्ध रखने वाले पुण्य, पाप, आस्रव, बंध आदि के स्वरूप का निरूपण किया गया है, तो दूसरी ओर संसार के समस्त बन्धनों से मुक्त होने पर भी चिंतन किया गया है। इसके अलावा धर्मास्तिकाय आदि जैसे अरूपी लोक अलोक व्यापी द्रव्यों, ज्योतिष, भूगोल - खगोल- गणित आदि अनेक विषयों पर भी इस दर्शन में गहन चिंतन-मनन किया गया है। इस प्रकार संसार का ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं जिसका निरूपण इस दर्शन में नहीं मिलता है। जहाँ तक इस दर्शन में निरूपित विषयों की प्रामाणिकता का प्रश्न है, वे सम्पूर्ण विषय सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर प्रभु अथवा श्रुत केवली कथित हैं। श्रुतकेवली रचित आगम साहित्य भी उतना ही प्रामाणिक माना जाता जितना सर्वज्ञ कथित, क्योंकि श्रुतधर केवली अपनी कमनीय- कल्पना का संमिश्रण अपने आगम साहित्य में नहीं करते, वे तो केवल भाव को भाषा के परिधान में समलंकृत करते हैं। अत एव यह पूर्ण खातरी के साथ कहा जा सकता है कि जिन-जिन विषयों का इस दर्शन में प्रतिपादन हुआ है वह शतप्रतिशत प्रामाणिक ही है। जैन आगम साहित्य का समय-समय पर विभिन्न रूप में वर्गीकरण हुआ है । सर्व प्रथम इसे अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया। अंग-प्रविष्ट में, उन आगमों को लिया गया, जिनका निर्यूहण गणधर भगवन्तों द्वारा किया है और अंग बाह्य में स्थविर श्रुतकेवली रचित आगम साहित्य को । समवायांग और अनुयोग द्वार सूत्र में आगम साहित्य का केवल द्वादशांगी के रूप में निरूपण हुआ है। इसके अलावा आगम साहित्य का उसकी विषय सामग्री के अनुसार (द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग में) भी वर्गीकरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004193
Book TitleChandra Pragnapti Surya Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandrapragnapti
File Size15 MB
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