SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ जा वि य से अभिंतरिया परिसा भवइ, तं जहा-माया इवा, पिया इवा, भाया इवा, भगिणी इवा, भज्जा इवा, पुत्ता इवा, धूया इवा, सुण्हाइवा, तेसिं पि य णं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं णिवत्तेइ-सीओदगवियडंसि, उच्छोलित्ता भवइ जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिए परंसि, लोगंसि, ते दुक्खंति, सोयंति, जूरंति, तिप्पंति, पिटुंति, परितप्पंति; ते दुक्खण-सोयण-जूरण-तिप्पणपिट्टण-परितिप्पण-वहबंधण परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति । कठिन शब्दार्थ- उच्छोलित्ता - फेंक देने वाले, दुक्खंति-दुःख देते हैं, सोयंति- शोक-पश्चात्ताप करते हैं, जूति - झूराते हैं, टप-टप आंसू गिराते हैं, तिप्पंति - ताप उपजाते हैं, पिटुंति - पीड़ा उपजाते हैं, परितप्पंति - विशेष परिताप उपजाते हैं। भावार्थ - इन क्रूर पुरुषों के अन्दर के परिवार जो माता, पिता, भाई, बहिन, भार्या, पुत्र, कन्या और पुत्रवधू आदि होते हैं इनका भी थोड़ा अपराध होने पर इन्हें वे भारी दण्ड देते हैं। सर्दी के समय वे इन्हें ठण्डे पानी में डाल देते हैं तथा मित्रद्वेषप्रत्ययिक क्रियास्थान में जिन दण्डों को वर्णन किया गया है वे सभी दण्ड इन्हें वे देते हैं। इस प्रकार निर्दयता के साथ अपने परिवार को दण्ड देने वाला वह पुरुष अपने परलोक को नष्ट करता है। वह अपने इस क्रूर कर्म के फल में दुःख पाता है, शोक पाता है, पश्चात्ताप करता है। वह सदा दुःख शोक आदि क्लेशों को भोगता रहता है परन्तु कभी इनसे मुक्ति नहीं पाता है यह जानना चाहिए । ___ एवमेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाइं चउपंचमाइं छहसमाई वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं भुंजित्तु भोग भोगाई पविसइत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहूई पावाइं कम्माइं उस्सण्णाइं संभारकडेण कम्मुणा से जहा णामए अयगोले इ वा सेलगोले इ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदग-तल-मइवइत्ता अहे धरणि तल-पइट्ठाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए वग्जबहुले, धूयबहुले, पंकबहुले, वेरबहुले, अप्पत्तियबहुले, दंभबहुले, णियडिबहुले, साइबहुले, अयसबहुले, उस्सण्ण-तसपाणघाई कालमासे कालं किच्चा धरणितलमइवइत्ता अहे णरग-तल-पइट्ठाणे भवइ ॥३५॥ ___ कठिन शब्दार्थ - अयगोले - लोहे का गोला, सेलगोले - पत्थर का गोला, उदगतलमइवइत्तापानी को लांघ कर, धरणितलपइट्ठाणे - पृथ्वी तल में जाकर टिकता है, अयसबहुले- अयशकीर्ति का कार्य करने वाला, उस्सण्णतसपाणघाई - प्रायः त्रस प्राणियों की घात करने वाला । __ भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से बाहर और भीतर के परिवार वर्ग को घोर दण्ड देने वाले, स्त्री तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy