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अध्ययन २
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जाव सव्वोवसंता सव्वत्ताए, परिणिव्वुडे त्ति बेमि । एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्व-दुक्ख-पहीणमग्गे एगंत-सम्मे साहु, दोच्चस्स ठाणस्स धम्म-पक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥ ३३ ॥ ____ भावार्थ - अधर्म पक्ष पहला पक्ष है इसलिए उसका वर्णन करने के पश्चात् धर्मपक्ष का वर्णन किया जाता है। जिन कार्यों से पुण्य की उत्पत्ति होती है उसे धर्म कहते हैं। उस धर्म का अनुष्ठान करने वाले बहुत से मनुष्य जगत् में निवास करते हैं वे पुण्यात्मा आर्यवंश में उत्पन्न हैं उनसे विपरीत शक यवन और बर्बर आदि अनार्य जन भी जगत् में निवास करते हैं इनका वर्णन पुण्डरीक अध्ययन में विस्तार के साथ किया गया है। अतः फिर दुहराने की आवश्यकता नहीं है यहाँ केवल बताना यह है कि शक यवन आदि अनार्य पुरुषों के जो दोष बताये गये हैं उन दोषों से रहित जो पुरुष उत्तम आचार में प्रवृत्त है वही धार्मिक है और उसका जो स्थान है वही धर्मस्थान या धर्म पक्ष है वही स्थान केवल ज्ञान की प्राप्ति का कारण और न्यायसंगत है अतः विवेकी पुरुष को उसी पक्ष का आश्रय लेना चाहिये यह आशय है । . .
विवेचन - इस सूत्र में सर्व प्रथम धर्मपक्ष के अधिकारीगण का नाम निर्देश किया गया है। इन सब का निष्कर्ष यह है कि - सभी दिशाओं, देशों, आर्यवंश, अनार्यवंश, समस्त रंग रूप वर्ण एवं जाति में उत्पन्न जन धर्म पक्ष के अधिकारी हो सकते हैं। इस पर किसी एक विशिष्ट वर्ण, जाति, वंश, देश आदि का अधिकार नहीं है। किन्तु इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि - अनार्य देशोत्पन्न और अनार्य वंशज व्यक्तियों में जो दोष बताये गये उन दोषों से रहित उत्तम आचार में प्रवृत्त धार्मिक जन ही धर्म पक्ष के अधिकारी होते. हैं। पुण्डरीक अध्ययन में जो योग्यताएं दुर्लभ पुण्डरीक को प्राप्त करने वाले भिक्षु की बतलाई गयी है। वे सब योग्यताएँ धर्मपक्ष के साधक में होना आवश्यक है। यहां तक कि उसके समस्त कषाय उपशान्त होते हैं तथा वह समस्त इन्द्रिय विषय की आसक्ति से निवृत्त होते हैं। - यह धर्म पक्ष आर्य, केवल, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्वाणमार्ग और निर्याण मार्ग तथा सर्व दुःख प्रहीण मार्ग है। एकान्त सम्यक् है एवं श्रेष्ठ है। - अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एव-माहिज्जइ । जे इमे भवंति आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुइरहस्सिया जाव ते तओ विप्प-मुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए पच्चायंति। एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्ख-पहीणमग्गे एगंत-मिच्छे असाहु । एस खलु तच्चस्स .ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिए ॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - आरणिया - अरण्य अर्थात् जङ्गल में रहने वाले, आवसहिया - आक्सथ
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