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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
..... कठिन शब्दार्थ - धिजीवियं - धिक्कार पूर्ण जीवन को, कयबलिकम्मे - स्नान सम्बन्धी सारे
कार्य करके, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते - कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त कर, कंठेमालाकडे - गले में माला पहन कर, आविद्धमणिसुवण्णे - मणि और सुवर्ण के आभूषण पहन कर, कप्पियमालामउलीमाला युक्त मुकुट धारण कर, वग्धारियसोणिसुत्तग मल्ल-दामकलावे - कमरपट्टा व पुष्प माला युक्त करधनी पहन, अहय वत्थपरिहिए - अक्षत एवं अत्यंत स्वच्छ नवीन वस्त्र पहन कर, चंदणोक्खित्तगायसरीरे - शरीर के अंगों पर चंदन का लेप कर, कूडागार सालाए - कूटागार शाला में, इत्थीगुम्मसंपरिवुडे - स्त्री समूह से परिवृत्त, महया हय-णट्ट-गीय वाइय तंतीतलताल तुडियघणमुइंग पडुपवाइय रवेणं - महात् प्रयत्न से आहत नाट्य गीत वाद्य, वीणा, तल, ताल तूर्य घंटा और मृदंग के कुशलवादकों द्वारा बजाये जाते हुए स्वर के साथ ।
भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से साधुओं की निन्दा करने वाले साधुद्रोहियों का जीवन यद्यपि धिग्जीवन है तथापि वे उसे उत्तम समझते हैं । वे परलोक के लिए कुछ भी. कार्य नहीं करते हैं । वे पाप कर्म में आसक्त रहते हुए स्वयं दुःख भोगते हैं और दूसरों को भी कष्ट देते हैं । वे प्राणियों को नाना प्रकार की पीड़ायें दे कर अपने लिए भोग की सामग्री तैयार करते हैं । चाहे करोड़ों प्राणियों की हत्या क्यों न हो जाय परन्तु अपने भोग में वे किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होने देते। यहां उनकी विलासिता का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है-ये प्रातःकाल उठ कर स्नान कर के मंगलार्थ सुवर्ण दर्पण मृदंग दधि अक्षत आदि माङ्गलिक पदार्थों का उपयोग करते हैं। पश्चात् देवार्चन कर के अपने शरीर में चन्दनादि का लेप और फूलमाला कटिसूत्र और मुकुट आदि भूषणों को धारण करते हैं। युवावस्था तथा यथेष्ट उपभोग की प्राप्ति के कारण इनका शरीर बहुत हृष्ट पुष्ट होता है, ये सायंकाल में शृङ्गार कर के ऊंचे महल में जा कर बड़े सिंहासन पर बैठ जाते हैं। वहाँ नवयौवना स्त्रियाँ उन्हें चारों ओर से घेर लेती है और अनेकों दीपकों के प्रकाश में रात भर वहाँ वे नाच गान और बाजों के मधुर शब्दों का उपभोग करते हैं। इस प्रकार उत्तमोत्तम भोगों को भोगते हुए वे अपने जीवन को व्यतीत करते हैं ।
विवेचन - "कयबलिकम्मे" मूल पाठ में यह शब्द आया है। जिसका टीकाकार ने तो अर्थ किया है कि "देव की पूजा करके।" किन्तु यह अर्थ सङ्गत नहीं होता है क्योंकि सूर्याभ देव आदि के वर्णन में बावड़ी में स्नान करने का वर्णन है। वहां पर भी "कयबलिकम्मे" शब्द आया है परन्तु देव पूजा करने का अर्थ घटित नहीं होता है। क्योंकि बावड़ी में देव का स्थान कहाँ ? इस विषय में पूर्वाचार्यों की धारणा इस प्रकार है कि जहाँ स्नान का पूरा वर्णन है वहाँ इस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जैसे कि उववाई सूत्र में कोणिक राजा के स्नान के वर्णन में स्नान का पूरा वर्णन दिया है इसलिये वहाँ कयबलिकम्मे शब्द नहीं दिया है। इसलिये जहाँ स्नान का पूरा वर्णन नहीं है उस पूरे वर्णन को बतलाने के लिए 'कयबलि कम्मे' शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे कि - "उसभाइ महावीर पजवसाणाणं" यहाँ पर आदि शब्द से अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों का ग्रहण
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