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________________ अध्ययन २ ग्रहण करता है और शास्त्रानुसार प्रमाद रहित होकर अपनी प्रव्रज्या का पालन करता हुआ जीवन मरण में निःस्पृह होकर अपनी आयु को व्यतीत करता है । वह कभी भी आस्रवों का सेवन नहीं करता है सभी इन्द्रियों को उनके विषय से निवृत्त करके पाप से आत्मा की खूब रक्षा करता है । वह चलते, फिरते, उठते, बैठते, सोते, जागते सदा ही जीवों की विराधना का ध्यान रखता हुआ प्रवृत्ति करता है। वह बिना उपयोग के अपने नेत्र के पलकों को गिराना भी अच्छा नहीं समझता है वह अपने भाण्डोपकरण को लेते और रखते समय तथा बड़ी नीति लघु नीति एवं कफ तथा नासिका के मल को त्यागते समय जीवों की विराधना का ध्यान रखता हुआ ही अपनी प्रवृत्ति करता है । वह अपने मन को बुरे विचार में कभी नहीं जाने देता है तथा वाणी को वश में रखते हुए कभी भी सावध भाषा का उच्चारण नहीं करता है । शरीर को वह इस प्रकार स्थिर रखता है कि कभी भी उसे बुरी प्रवृत्ति में नहीं जाने देता। वह नव गुप्तियों के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इस प्रकार सब प्रकार से पाप की क्रियाओं से बचते रहने पर भी उस पुरुष को तेरहवीं क्रिया ऐर्यापथिकी नहीं बचती किन्तु लग जाती है कारण यह है कि - वह क्रिया बड़ी सूक्ष्म है इसलिये धीरे से भी पलक गिराने पर भी लग जाती है केवलज्ञानी को भी इस क्रिया का बन्ध होता है । केवलज्ञानी स्थाणु की तरह निश्चल रहता है इसलिए उसको यह क्रिया न लगनी चाहिए यह शंका करना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे अग्नि के ऊपर चढ़ाया हुआ पानी बराबर फिरता रहता है इसी तरह मन, वचन और काय के योग जिसमें विद्यमान हैं वह जीव सदा ही चलायमान रहता है। वह स्थाणु की तरह निश्चल होकर रहे यह सम्भव नहीं है अतः केवलज्ञानी को भी इस क्रिया का बन्ध होता है। ___इस ऐर्याथिकी क्रिया के द्वारा जो कर्म-बन्ध होता है उसकी स्थिति बहुत थोड़ी होती है । वह प्रथम समय में बाँधा जाकर उसी समय में स्पर्श किया जाता है और द्वितीय समय में विपाक का अनुभव हो कर तृतीय समय में निर्जीर्ण हो जाता है । अतः इसकी स्थिति की मर्यादा दो समय की है । इतनी कम स्थिति जो इसकी मानी जाती है इसका कारण यह है कि - योगों के कारण कर्मों का बन्ध होता है और कषाय के कारण उसकी स्थिति होती है इसलिये जहाँ कषाय नहीं है वहाँ बन्ध की स्थिति होना संभव नहीं है इसलिए साम्परायिक कर्मबन्ध के समान इसकी चिरकाल की स्थिति नहीं होती है। आशय यह है कि - योग के कारण इसका बन्ध तो हो जाता है परन्तु कषाय न रहने के कारण इसकी स्थिति नहीं होती है अतएव इसे 'बद्धस्पृष्टा' कहते हैं अर्थात् यह बन्ध और स्पर्श को साथ ही उत्पन्न करती है । इसका विपाक भी एक मात्र सुख रूप है वह सुख देवताओं के सुख से भी कई गुण उच्च है। यही ऐर्यापथिकी क्रिया का स्वरूप है। जो पुरुष उपशान्त कषायी वीतराग और क्षीण कषायी वीतराग हैं उनको इसी क्रिया का बन्ध होता है, शेष प्राणियों को साम्परायिक कर्म का बन्ध होता है । अतः शेष प्राणी ऐर्यापथिकी क्रिया को छोड़ कर पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों में विद्यमान होते हैं। पूर्वोक्त १२ प्रकार के क्रियास्थानों में रहने वाले प्राणियों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इनमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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