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करते हैं पर स्वयं ही कष्टों में फंस जाते हैं। राजा वहाँ का वहीं रह जाता है। जबकि दूसरी ओर सद्धर्म का उपदेश देने वाले भिक्षु के पास राजा अपने आप खींचा हुआ चला आता है। द्वितीय अध्ययन में कर्म बन्ध के तेरह स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय अध्ययन "आहारपरिज्ञा" में बताया गया है कि भिक्षु को निर्दोष आहार पानी की गवेषणा किस प्रकार करनी चाहिए। चौथे अध्ययन "प्रत्याख्यान परिज्ञा" में त्याग प्रत्याख्यान-व्रत नियमों का स्वरूप बताया गया है। पांचवें आचार श्रुत अध्ययन में त्याज्य वस्तुओं की गणना की गई है तथा लोक मूढ़ मान्यता का खण्डन किया गया है। छठा अध्ययन "आर्द्रकीय" है। जिसमें आर्द्रकमुनि द्वारा गोशालक के द्वारा प्रभु महावीर पर लगाए गलत आक्षेपों का सटीक उत्तर है। इसके अलावा बौद्ध भिक्षु वेदवादी ब्राह्मण, सांख्यमतवादी एक दण्डी और हस्ती तापस के साथ विशद चर्चा तथा सभी को युक्ति, प्रमाण निर्ग्रन्थ सिद्धान्त के अनुसार दिये गये उत्तरों को बहुत ही रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। सातवां अध्ययन "नालन्दीय" है। राजगृह नगर के बाहर उपनगरी नालन्दा के निकवर्ती "मनोरथ" नामक उद्यान में प्रभु महावीर के प्रथम गणधर गौतम एवं प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य निर्ग्रन्थ उदक पेढाल पुत्र की धर्मचर्चा का बड़ा ही रोचक एवं विस्तृत वर्णन है। गणधर गौतम ने अनेक युक्तियों और दृष्टान्तों के द्वारा उदक निर्ग्रन्थ की शंकाओं का समाधान किया जिससे संतुष्ट होकर वह प्रभु महावीर के श्री चरणों में समर्पित हुआ एवं पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार प्रस्तुत दूसरा श्रुतस्कन्ध दार्शनिक और सैद्धान्तिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध का संयुक्त प्रकाशन बहुत समय पूर्व संघ द्वारा हुआ था। जिसका अनुवाद पूज्य श्री उमेश मुनि जी म. सा. "अणु" ने किया था। जिसमें मूल पाठ के साथ मात्र संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद ही था। जो काफी समय से अनुपलब्ध था। वर्तमान में सूत्रकृताङ्ग सूत्र का प्रकाशन दो भागों में किया गया है जिसका प्रथम श्रुतस्कन्ध प्रकाशित हो
चुका है। यह दूसरा श्रुतस्कन्ध पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। इस श्रुतस्कन्ध का मुख्य आधार जैनाचार्य पूज्य जवाहरलाल जी म. सा. के निर्देशन में अनुवादित सूत्रकृताङ्ग सूत्र के चार भाग हैं। जो पं. अम्बिकादत्त जी ओझा व्याकरणाचार्य द्वारा सम्पादित किये हुए हैं। इस प्रकाशन की शैली संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र की रखी गई है। जिसमें मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, 'भावार्थ एवं आवश्यकतानुसार स्थान-स्थान पर विवेचन भी दिया गया है। ताकि विषय वस्तु को समझने में सहुलियत हो। . ___ इसकी प्रेस काफी श्रीमान् पारसमल जी सा. चण्डालिया ने तैयार की जिसे पूज्य श्री "वीरपुत्र", जी म. सा. को तत्त्वज्ञ सुश्रावक मुमुक्षु आत्मा श्री धनराजजी बडेरा (वर्तमान में धर्मेशमुनि जी) तथा सेवाभावी सुश्रावक श्री हीराचन्दजी पींचा तथा उनके सुपुत्र श्री दिनेश जी पींचा ने सुनाया। म. सा. श्री ने जहाँ जहाँ उचित समझा संशोधन बताया। इसके पश्चात् पुनः इसे श्रीमान् पारसमल जी
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