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________________ अध्ययन ७ २१३ बोध नहीं होने से, अणभिगमेणं - अभिगम अर्थात् हृदयंगम नहीं होने से, अदिवाणं- नहीं देखे हुए, असुयाणं - नहीं सुने हुए, अविण्णायाणं - विज्ञात-विशेष नहीं जाने हुए, अव्योगडाणं - अव्याकृत अर्थात् विशेष स्पष्ट नहीं किये हुए एवं गुरुमुख से ग्रहण नहीं किये हुए, अणिगूढाणं - गूढ अर्थ नहीं जाना हुआ अर्थात् प्रकट नहीं जाना हुआ, अविच्छिण्णाणं - संशय रहित होकर ज्ञात नहीं किये हुए, अणिसिट्ठाणं - निश्चय नहीं किये हुए, अणिवूढाणं - अच्छी तरह से निश्चय नहीं किये हुए अर्थात् निर्वाह (पालन) नहीं किये हुए, अणुवहारियाणं- अवधारण-धारणा नहीं किये हुए। भावार्थ - उदक पेढाल पुत्र ने भगवान् गौतम स्वामी से कहा कि हे भगवन् ! पहले मैंने इन पदों को नहीं जाना था इसलिए इनमें मेरी श्रद्धा न थी परन्तु अब आप से जानकर इनमें मैं श्रद्धा करता हूँ। इसके पश्चात् भगवान् गौतम स्वामी ने उदक पेढाल पुत्र से कहा कि हे आर्य ! तुम इस विषय में श्रद्धान करो क्योंकि सर्वज्ञ का कथन अन्यथा नहीं है । यह सुनकर फिर उदक ने कहा कि हे भगवन् ! यह मुझको इष्ट है परन्तु इस चार याम वाले धर्म को छोड़ कर अब पांच याम वाले धर्म को प्रतिक्रमण के साथ स्वीकार करके मैं विचरना चाहता हूँ। . तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छइत्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करित्ता वंदइ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउजामाओ भन्माओ पंचमहत्वइयं सपडिकमणं धम्म उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, तए णं समणे भगवं महावीरे उदयं एवं वयासी-अहा सुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउजामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जिता णं विहरइ, तिबेमि ॥८१॥ - कठिन शब्दार्थ - चाउजामाओ - चतुर्याम से, पंचमहव्वइयं - पांच महाव्रत युक्त, सपडिक्कमणं - सप्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण के साथ । . भावार्थ - इसके पश्चात् भगवान् गौतम स्वामी उदक पेढाल पुत्र को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहाँ गये। इसके पश्चात् उदक पेढाल पुत्र ने श्रमण भगवान् महावीरस्वामी की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, इसके पश्चात् वन्दना नमस्कार किया वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि - हे भगवन् ! मैं आपके पास चार याम वाले धर्म से प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत वाले धर्म को अङ्गीकार करके विचरना चाहता हूँ। इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उदक से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुमको सुख हो वैसा करो। धर्मकार्य में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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