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________________ अध्ययन ७ २०७ तक प्रत्याख्यानी श्रावक उन्हें नहीं मारता है और फिर वे मर कर जब त्रस योनि में उत्पन्न होते हैं उस समय भी श्रावक उन्हें नहीं मारता है इसलिये श्रावक का प्रत्याख्यान सविषयक है निर्विषयक नहीं है अतः त्रस के अभाव के कारण श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याय सङ्गत नहीं है । भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्ठमुहिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालित्तए, णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिमं जाव विहरित्तए, वयं च णं सामाइयं देसावगासियं पुरत्था पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एयावता जाव सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे अहमंसि, तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते तओ आउयं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो जाव तेसु पच्चायंति जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते पाणा वि जावं अयं वि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥७९॥ कठिन शब्दार्थ - खेमकरे - क्षेमंकर-क्षेत्र कुशल करने वाले। भावार्थ - श्री गौतम स्वामी अब दूसरे प्रकार से श्रावक के प्रत्याख्यान को सविषयक होना सिद्ध करते हैं। कोई श्रावक देशावकाशिक व्रत को स्वीकार करके धर्म का आचरण करते हैं । जिस श्रावक ने पहले सौ योजन की मर्यादा कायम करके दिग्द्रत ग्रहण किया है वह प्रतिदिन अपनी मर्यादा को घटाता हुआ जो एक योजन, गव्यूति (२ कोस) ग्राम और गृह की मर्यादा करता है उसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं । इस व्रत को ग्रहण करने वाला श्रावक प्रतिदिन प्रातःकाल में इस प्रकार प्रत्याख्यान करता है कि- "मैं आज पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में इतने कोस या इतनी दूर से अधिक न जाऊंगा।" इस प्रकार वह श्रावक प्रतिदिन अपने गमनागमन की मर्यादा स्थापित करता है । उस श्रावक ने गमनागमन के लिये जितनी मर्यादा स्थापित की है उस मर्यादा से बाहर रहने वाले प्राणियों को दण्ड देना वह वर्जित करता है । वह श्रावक अपने मन में यह निश्चय करता है कि "मैं ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहने वाले प्राणियों को दण्ड देना वर्जित करता हूँ इसलिये मैं उन प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ"। वे प्राणी जब तक जीते रहते हैं तब तक श्रावक उनकी रक्षा करता है और वे मर कर फिर यदि उस मर्यादा से बाहर के प्रदेशों में ही उत्पन्न होते हैं तो श्रावक उन्हें दण्ड देना पुनः वर्जित करता है इसलिए श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याय संगत नहीं है ।। ७९ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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