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________________ अध्ययन ७ २०१ विहारेणं विहरमाणा तं चेव जाव अगारं वएग्जा ? हंता वएज्जा, ते णं तहप्पगारा कप्पंति संभुजित्तए ? णो इणटे समटे ! से जे से जीवे जे परेणं णो कप्पंति संभंजित्तए, से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुंजित्तए, से जे जीवे जे इयाणिं णो कप्पंति संभुंजित्तए, परेणं अस्समणे आरेणं समणे, इयाणिं अस्समणे, अस्समणेणं सद्धिं णो कप्पंति समणाण णिग्गंथाणं संभुंजित्तए, से एवमायाणह, णियंठा, से एवमायाणियव्वं ॥७॥ . . कठिन शब्दार्थ - परिव्वाइया - परिव्राजक, परिव्वाइयाओ- परिव्राजिकाएँ, तित्थाययणेहितोतीर्थ के स्थान में, संभुजित्तए - संभोग के लिये, आहार शामिल कराने के लिये, अस्समणे - अश्रमण, आरेणं- पीछे-बाद में। - भावार्थ - श्री गौतम स्वामी दूसरा दृष्टान्त देकर श्रमण निग्रंथों को वही बात समझा रहे हैं कि - प्रत्याख्यान का सम्बन्ध पर्याय के साथ होता है। द्रव्य रूप जीव के साथ नहीं होता है । यह श्रावकों के लिये ही नहीं किन्तु साधुओं के लिये भी यही बात है। किसी अन्यतीर्थी परिव्राजक और परिव्राजिका के साथ सम्यग्दृष्टि साधु संभोग नहीं करते हैं अर्थात् आहार पानी शामिल नहीं करता है। परन्तु जब वे साधु से धर्म को सुन कर सम्यग् धर्म के अनुसार दीक्षा धारण करके साधु हो जाते हैं उनके साथ साधु संभोग करते हैं और वे ही जब असत् कर्म के उदय से फिर पहले के समान ही दीक्षा पालन त्याग कर गृहस्थं हो जाते हैं तब उनके साथ साधु संभोग नहीं करते हैं । कारण यही है कि - दीक्षा छोड़ देने के पश्चात् उनकी पर्याय बदल जाती है परन्तु जीव तो उनका वही है जो दीक्षा लेने के पश्चात् था । परन्तु अब वह दीक्षा की पर्याय नहीं है इसलिये साधु उनके साथ संभोग नहीं करता है । इसी तरह जिस पुरुष ने प्रस प्राणी के घात का त्याग किया है वह त्रस प्राणी जब अस काय को छोड़ कर स्थावर पर्याय में आ जाता है तब वह श्रावक के प्रत्याख्यान का विषय नहीं होता है इसलिए उसके घात से श्रावक के प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है, यह जानना चाहिये ।। ७८॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ - णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, वयं णं घाउहसट्ठमुहिङपुण्णिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो, एवं थूलगं मुसावायं, थूलगं अदिण्णादाणं, थूलगं मेहुणं, थूलगं परिग्गहं पचक्खाइस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, मा खलु ममट्ठाए किंधि करेह वा करावेह वा तत्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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