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________________ १८८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ धर्म चर्चा मुख्यतया श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में है। जिसके मुख्य दो मुद्दे उदक निर्ग्रन्थ की ओर से प्रश्न के रूप में उपस्थित किये गये हैं - १. श्रमणोपासक द्वारा ग्रहण किये जाने वाला त्रस वध प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। क्योंकि उसका पालन संभव नहीं है। क्योंकि त्रसजीव मरकर स्थावर हो जाते हैं और स्थावर जीव मरकर त्रस जीव हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में त्रस स्थावर का निर्णय करना कठिन हो जाता है इसलिये क्या त्रस के बदले 'त्रस भूत' शब्द का प्रयोग नहीं होगा ? त्रसभूत का अर्थ है - वर्तमान में जो जीव त्रस पर्याय में हैं उसकी हिंसा का प्रत्याख्यान तथा २. सभी त्रस जीव यदि कदाचित् स्थावर हो जायेंगे तो श्रमणोपासक का त्रसवध प्रत्याख्यान निरर्थक और निर्विषय हो जायेगा। इन दोनों प्रश्नों का उत्तर श्री गौतमस्वामी द्वारा अनेक युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा विस्तारपूर्वक दिया गया है। अन्त में निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में आत्म समर्पण करके पञ्चमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर लेते हैं। यह सब रोचक वर्णन इस अध्ययन में है। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्या, रिद्धिस्थिमियसमिद्धे वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, एत्थ णं णालंदा णाम बाहिरिया होत्या, अणेगभवणसयसण्णिविट्ठा जाव पडिरूवा ।। ६८॥ कठिन शब्दार्थ - रिद्धिस्थिमियसमिद्धे - ऋद्धि (ऐश्वर्यशाली) शान्त और समृद्ध, बाहिरिया - बाहिरिका (उपनगर-छोटा गांव) अणेगभवणसयसण्णिविट्ठा - अनेक (सैकडों) भवनों से सुशोभित। भावार्थ - इस सूत्र में राजगृह नगर का वर्णन जैसा किया है वैसा वह इस समय नहीं पाया जाता है किन्तु किसी समय वह वैसा अवश्य था इसी अर्थ को बताने के लिये मूल में "तेणं कालेणं तेणं समएणं" कहा है अर्थात् जिस समय राजगृह नगर इस सूत्र में कहे हुए विशेषणों से युक्त था उस काल उस समय के अनुसार ही यहाँ वर्णन किया जाता है। इसलिये अब वैसा न होने पर भी इस वर्णन को मिथ्या नहीं जानना चाहिये यह आशय है। किस काल में वह राजगृह नगर वैसा था ? यह तो गौतम स्वामी के समय से ही निश्चित हो जाता है। इसलिये जिस समय भगवान् महावीर स्वामी और गौतम स्वामी वर्तमान थे उस समय राजगृह नगर बहुत विस्तृत और अनेक गगनचुम्बी भवनों से सुशोभित तथा धन धान्य आदि से परिपूर्ण था उस नगर के बाहर उत्तर और पूर्व दिशा में नालन्दा नामक एक छोटा ग्राम था वह ग्राम भी बड़ा ही मनोहर और अनेक उत्तमोत्तम भवनों से सुशोभित था ।। ६८॥ तत्थ णं णालंदाए बाहिरियाए लेवे णामं गाहावई होत्था, अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिण्ण-विपुलभवणसय-णासणजाणवाहणाइण्णे बहुधण-बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासी-दासगोमहिस-गवेलगप्पभूए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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