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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
पकाने में अनेक स्थावर और जङ्गम प्राणियों का भी घात होता है इसलिये वे जो वर्ष भर में एक प्राणी के घात की बात कहते हैं यह भी वास्तव में मिथ्या है । वे अहिंसा के उपासक नहीं है । अहिंसा की उपासना तो एक मात्र माधुकरी वृत्ति से ही होती है परन्तु यह मूखों के समझ में नहीं आता है । ऐसे हिंसामय कार्य करने वाले मिथ्याचारी जीवों को ज्ञान की प्राप्ति कभी नहीं होती है अतः मनुष्य को इन दूषित मार्गों का आश्रय कदापि नहीं लेना चाहिये । इस प्रकार हस्तितापसों को परास्त करके आर्द्रकुमार मुनि भगवान् महावीर स्वामी के पास आये ।। ५४॥
बुद्धस्स आणाए इमं समाहिं, अस्सिं सुठिच्चा तिविहेण ताई। तरिउं समुदं व महाभवोघं, आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जा॥ ५५॥ तिबेमि इति अद्दइज्जणामं छट्ठमण्झयणं समत्तं॥
कठिन शब्दार्थ - बुद्धस्स - तीर्थंकर की, आणाए - आज्ञा में, तरिउं - तैर कर, महाभवोघंभवरूपी महान् प्रवाह वाले।
भावार्थ - तत्त्वदर्शी भगवान् की आज्ञा से इस शान्तिमय धर्म को अङ्गीकार करके और इस धर्म में अच्छी तरह स्थित होकर तीनों करणों से मिथ्यात्व की निन्दा करता हुआ पुरुष अपनी तथा दूसरे की रक्षा करता है। महादुस्तर समुद्र की तरह संसार को पार करने के लिये विवेकी पुरुषों को सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप धर्म का वर्णन और ग्रहण करना चाहिये॥ ५५ ॥
विवेचन - जो पुरुष केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी की आज्ञा से इस उत्तम धर्म को स्वीकार करके मन, वचन और काया से इसका भली भांति पालन करता है तथा समस्त मिथ्या दर्शनों की तीनों करणों से निन्दा करता है वह पुरुष इस घोर संसार से अपनी और दूसरे की भी रक्षा करता है तथा वही केवलज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष का अधिकारी होता है। इस संसार को पार करने का एक मात्र उपाय सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र ही है इसलिये जो पुरुष इनको धारण करने वाला है, वही सच्चा साधु है। वह पुरुष अपने सम्यग्दर्शन के प्रभाव से परतीर्थियों की तपः समृद्धि को देख कर जैन दर्शन से भ्रष्ट नहीं होता है और सम्यग् ज्ञान के प्रभाव से वह परतीर्थियों को परास्त करके उन्हें पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का उपदेश देता है तथा सम्यक् चारित्र के प्रभाव से वह समस्त जीवों का हितैषी होकर अपने आस्रव द्वारों को रोक देता है वह अपनी विशिष्ट तपस्या के प्रभाव से अपने अनेक जन्म के कर्मों को नष्ट कर देता है अतः ऐसे उत्तम धर्म को ही विद्वान् पुरुष स्वयं ग्रहण करते हैं और दूसरों को भी इसे ग्रहण करने की शिक्षा देते हैं ।। ५५॥
त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी. अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ।
॥ छठा अध्ययन समाप्त॥
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