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________________ अध्ययन ६ १७९ HHH विवेचन - आर्द्रकमुनि ब्राह्मणों के वाक्य को सुनकर उनके मत को दूषित करते हुए कहते हैं कि - हे ब्राह्मणो ! जो मनुष्य मांस भक्षके दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराता है वह कुपात्र को दान देने वाला है क्योंकि बिल्ली जैसे मांस की प्राप्ति के लिये घर-घर घूमती फिरती है इसी तरह जो ब्राह्मण मांस की प्राप्ति के लिए क्षत्रिय आदि कुलों में घूमता है वह दूसरे की कमाई खाने वाला, निन्दनीय जीविका करता है। वह ब्राह्मण कुपात्र है, वह शील रहित है, इसलिए ऐसे ब्राह्मणों को भोजन कराना कुपात्र दान देना है, अतः ऐसे ब्राह्मणों को भोजन कराने वाला पुरुष मांसाहारी पक्षियों से पूर्ण तथा भयंकर वेदना से युक्त नरक में जाता है ।। ४४ ॥ दयावरं धम्म दुगुंछमाणा, वहावहं धम्म पसंसमाणा । एगपि जे भोययइ असीलं, णिवो णिसं जाइ कुओ सुरेहिं ? ॥४५॥ कठिन शब्दार्थ - दयावरं - दया प्रधान,धम्म - धर्म की,वहावहं - हिंसाप्रधान,पसंसमाणा - प्रशंसा करता हुआ,असीलं - अशील को,णिसं - अंधकार युक्त। भावार्थ - दया प्रधान धर्म की निन्दा और हिंसा प्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो राजा एक भी मांस लोलुपी शील रहित ब्राह्मण को भोजन कराता है वह अन्धकार युक्त नरक में जाता है फिर देवता होने की तो बात ही क्या है ॥ ४५ ॥ विवेचन - दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसामय धर्म की प्रशंसा करने वाला जो मूर्ख राजा एक भी व्रत रहित मांस लोलुपी अशील ब्राह्मण को छह काय के जीवों का उपमर्द करके भोजन कराता है वह भयंकर अन्धकार युक्त नरक में जाता है । वह मूर्ख व्यर्थ ही अपने को धर्मात्मा मानता है वह पुरुष अधम देवता भी नहीं होता है फिर उत्तम देवता होने की तो बात ही क्या है ? ऐसे एक भी अशील ब्राह्मण को भोजन कराने से जबकि नरक होता है तब फिर दो हजार को भोजन कराने से तो कहना ही क्या है ? ब्राह्मणों को जाति का भारी अभिमान होता है परन्तु जाति कर्मवश जीव को प्राप्त होती है वह नित्य नहीं है इसलिये बुद्धिमान् पुरुष अपनी जाति का मद नहीं करते हैं । कोई कहते हैं कि "ब्रह्म के मुख से ब्राह्मण की, भुजा से क्षत्रिय की, उरु से, वैश्य की, और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है" परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर वर्णों का परस्पर भेद नहीं हो सकता है। जैसे वृक्ष की मूल शाखा तथा अग्र भाग में उत्पन्न फल समान होते हैं इसी तरह एक ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण चारों वर्ण भी समान होने चाहिये। परन्तु ब्राह्मण लोग चारों वर्गों को समान नहीं मानते हैं । तथा ब्रह्म के मुख आदि अङ्गों से चारों वर्गों की उत्पत्ति आज कल क्यों नहीं होती? अतः यह कल्पना युक्ति रहित होने के कारण अप्रमाण है। एवं जाति अनित्य है यह ब्राह्मण धर्म का भी सिद्धान्त है जैसे कि - "श्रृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" "सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च । त्र्यहेन शूद्रीभवति, ब्राह्मणः क्षीरविक्रयी ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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