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अध्ययन ६
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भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा, सव्वेसि पाणाण णिहाय दंडं । तम्हा ण भुंजंति तहप्पगारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥४१॥ कठिन शब्दार्थ - णिहाय - त्याग कर, अणुधम्मो - अनुधर्म।
भावार्थ - प्राणियों के उपमर्द की आशङ्का से सावध अनुष्ठान को वर्जित करने वाले साधु पुरुष सब प्राणियों को दण्ड देना अर्थात् हिंसा का त्याग कर उस प्रकार के आहार को यानी दोष युक्त आहार को नहीं भोगते हैं। इस जैन शासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ॥ ४१ ॥
विवेचन - सर्वज्ञोक्त धर्म को पालन करने वाले उत्तम पुरुष प्राणियों के उपमर्द की आशंका से सावध कार्य नहीं करते हैं । वे किसी भी प्राणी को दण्ड नहीं देते हैं अर्थात् किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते हैं इसलिए वे अशुद्ध आहार का ग्रहण नहीं करते हैं। पहले तीर्थंकर ने इस धर्म का आचरण किया उसके पश्चात् उनके शिष्यगण इस धर्म का आचरण करने लगे इसलिये इस धर्म को अनुधर्म कहते हैं अथवा यह धर्म शिरीष के फूल के समान अत्यन्त कोमल है क्योंकि थोड़ा भी अतिचार हो जाने पर यह नष्ट हो जाता है इसलिये इसे अणुधर्म कहते हैं यह धर्म ही उत्तम पुरुषों का धर्म है और यही मोक्ष प्राप्ति का सच्चा साधन है।। ४१॥
णिग्गंथधम्ममि इमं समाहि, अस्सिं सुठिच्चा अणिहे चरेग्जा। बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अच्चत्थतं (ओ) पाउणइ सिलोगं॥ ४२॥
कठिन शब्दार्थ - णिग्गंथधम्मम्मि - निग्रंथ धर्म में, सुठिच्चा - स्थित हो कर,सीलगुणोववेएशील गुणों से युक्त,सिलोगं - श्लाघा (प्रशंसा) को। ... भावार्थ - इस निर्ग्रन्थ धर्म में स्थित पुरुष पूर्वोक्त समाधि को प्राप्त करके तथा इसमें भली भांति रह कर माया रहित होकर संयम का अनुष्ठान करे। इस धर्म के आचरण के प्रभाव से पदार्थों के ज्ञान को प्राप्त त्रिकालवेदी तथा शील और गुणों से युक्त पुरुष अत्यन्त प्रशंसा का पात्र होता है ॥ ४२ ॥
विवेचन - यह निर्ग्रन्थ धर्म किसी प्रकार के कपट से युक्त नहीं है किन्तु सम्पूर्ण कपटों से रहित है इसलिये यह 'निर्ग्रन्थ धर्म' कहलाता है "निर्गतः ग्रन्थेभ्यः कपटेभ्य इति निर्ग्रन्थः" अर्थात् जो धर्म ग्रन्थ यानी कपट से रहित है उसे निर्ग्रन्थ धर्म कहते हैं। यह धर्म श्रुत और चारित्र रूप है अथवा उत्तम पुरुषों से आचरण किया जाने वाला सर्वज्ञोक्त जो क्षान्ति आदि धर्म है वह निर्ग्रन्थ धर्म है। उस निर्ग्रन्थ धर्म में स्थित पुरुष पूर्वोक्त समाधि को प्राप्त करके अशुद्ध आहार का त्याग करे तथा सम्पूर्ण परीषहों को सहन करता हुआ वह शुद्ध संयम का अनुष्ठान करे । इस प्रकार इस धर्म के आचरण के प्रभाव से पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानता हुआ क्रोधादि रहित त्रिकाल दर्शी मूल गुण और उत्तर गुण से सम्पन्न साधु सम्पूर्ण द्वन्द्वों से रहित हो जाता है और वह दोनों लोक में प्रशंसा का पात्र होता है । ऐसे मुनिवरों के विषय में विद्वानों ने कहा है कि -
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