SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ६ १७३ भावार्थ - खली के पिण्ड में पुरुष बुद्धि मूर्ख को भी नहीं होती है। अतः जो पुरुष खली के पिण्ड में पुरुष बुद्धि अथवा पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि करता है वह अनार्य है। खलपिण्डी में पुरुष बुद्धि होना सम्भव नहीं है। अतः ऐसा वाक्य कहना भी मिथ्या है ॥ ३२ ॥ विवेचन- आर्द्रकमुनि कहते हैं कि - हे बौद्ध भिक्षुओ ! खलपिण्ड में पुरुष बुद्धि होना अत्यन्त मूर्ख को भी सम्भव नहीं है। पशु आदि भी पुरुष और खली को एक नहीं मानते हैं अतः जो अज्ञानी, पुरुष को खली समझ कर उसको आग में पका कर खाता है और दूसरे को भी ऐसा करने का उपदेश देता है वह निश्चय ही अनार्य है। खली के पिण्ड में पुरुष बुद्धि होना सम्भव नहीं है अतः जो पुरुष मनुष्य को खली का पिण्ड बताता है वह बिलकुल मिथ्या भाषण करता है अतः तुम्हारा धर्म आर्य पुरुषों के ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ३२ ॥ वायाभियोगेण जमावहेजा, णो तारिसं वायमुदाहरिजा । अट्ठाणमेयं वयणं गुणाणं, णो दिक्खिए बूय मुरालमेयं ॥ ३३॥ कठिन शब्दार्थ - वायाभियोगेण - जिस वचन से पाप लगता हो,दिक्खिए - दीक्षित,उरालं - स्थूल, निःसार। भावार्थ - जिस वचन के बोलने से जीव को पाप लगता है वह वचन विवेकी जीव को कदापि न बोलना चाहिये। तुम्हारा पूर्वोक्त वचन गुणों का स्थान नहीं है। अतः दीक्षा धारण किया हुआ पुरुष ऐसा असत्य और निःसार वचन नहीं कहता है ॥३३॥ - विवेचन - सावध भाषा के बोलने से भी पाप लगता है इसलिए भाषा के गुण और दोष को जानने वाले विवेकी पुरुष कर्म बन्ध को उत्पन्न करने वाली भाषा नहीं बोलते हैं तथा वस्तुतत्त्व को जान कर सत्य अर्थ का उपदेश देने वाले प्रव्रजित पुरुष "खली पुरुष है तथा पुरुष खली है एवं बालक तुम्बा है और तुम्बा बालक है" इत्यादि युक्ति रहित और मिथ्या वचन कभी नहीं कहते हैं ॥ ३३ ॥ लद्धे अटे अहो एव तुब्भे, जीवाणुभागे सुविचिंतिए व । पुव्वं समुहं अवरं च पुढे, उलोइए पाणितले ठिए वा ॥ ३४ ॥ कठिन शब्दार्थ - जीवाणुभागे - जीवों के कर्म फल का, सुविचिंतिए - विचार किया है, पाणितले - हस्ततल में, ठिए - स्थित, उलोइए - देख लिया है। भावार्थ - अहो ! बौद्धो ! तुमने ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया है तथा तुमने ही जीवों के कर्मफल का विचार किया है एवं तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक फैला है तथा तुमने ही हाथ में रखी हुई वस्तु के समान इस जगत् को देख लिया है ॥ ३४॥ (ये व्यंग वचन हैं।) विवेचन - मुनि आर्द्रकुमार बौद्ध भिक्षुओं को परास्त करके उनका हास्य करते हुए कहते हैं कि - हे बौद्धो ! तुमने ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया है एवं जीवों के शुभाशुभ कर्मों के फल को भी तुमने ही समझा है एवं ऐसे विज्ञान से तुम्हारा यश ही समस्त जगत् में व्याप्त है तथा. तुमने ही अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy