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________________ अध्ययन ६ १५७ ने जो यह दूसरा आचरण स्वीकार किया है निश्चय यह एक प्रकार की जीविका उन्होंने स्थापित की है क्योंकि अकेले विचरने वाले मनुष्य का लोग तिरस्कार किया करते हैं अतः जनसमूह का महान् आडम्बर रचकर वे अब विचरते हैं । कहा है कि - "छत्रं, छात्रं, पात्रं, वस्त्रं यष्टिच चर्चयति भिक्षुः । वेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न भिक्षाऽपि" । अर्थात् भिक्षु जो अपने पास छत्र, छात्र, पात्र, वस्त्र और दण्ड रखता है सो अपनी जीविका का साधन करने के लिये ही रखता है क्योंकि वेष और आडम्बर के बिना जगत् में भिक्षा भी नहीं मिलती है। इसलिये महावीर स्वामी ने भी जीविका के लिये ही इस मार्ग को स्वीकार किया है। महावीर स्वामी स्थिर चित्त नहीं किन्तु चञ्चल स्वभाववाले हैं। वे पहले किसी शून्य वाटिका अथवा किसी एकान्त स्थान में रहते हुए अन्त प्रान्त आहार से अपना निर्वाह करते थे परन्तु अब वे सोचते हैं कि रेती के कवल (ग्रास) के समान स्वादवर्जित यह कार्य जीवन भर करना ठीक नहीं हैं इसलिये वे अब महान् आडम्बर के साथ विचरते हैं। हे आर्द्रक ! इनके पहले आचार के साथ आजकल के आचार का मेल नहीं है किन्तु धूप और छाया.के समान एकान्त विरोध है क्योंकि-कहां तो अकेले विचरना और कहां महान् जनसमुदाय के साथ फिरना ? यदि इस प्रकार आडम्बर के साथ विचरना ही धर्म का अङ्ग है तो पहले महावीर स्वामी अकेले क्यों विचरते थे ? और यदि अकेले विचरना ही अच्छा है तो इस समय जो वे इतने जनसमुदाय में जाकर धर्मोपदेश करते हैं यह क्यों ? वस्तुतः ये चञ्चल हैं और इनकी चर्या समान नहीं है, किन्तु बदलती रहती है, इस कारण ये दाम्भिक है धार्मिक नहीं है इसलिये इनके पास तुम्हारा जाना ठीक नहीं है। इस प्रकार गोशालक के द्वारा कहे हुए आर्द्रकमुनि गोशालक को आधी गाथा के द्वारा उत्तर देते हैं। पुट्विं च इण्डिं च अणागयं वा, एगंतमेवं पडिसंधयाइ ॥३॥ . भावार्थ - पहले अब तथा भविष्य में सदा सर्वदा भगवान् महावीर स्वामी एकान्तता का ही अनुभव करते हैं।।३॥ विवेचन - गोशालक के आक्षेप का समाधान करते हुए आर्द्रकमुनि कहते हैं कि-भगवान् महावीर स्वामी पहले अब और भविष्य में सदा एकान्त का ही अनुभव करते हैं इसलिये उन्हें चञ्चल कहना तथा उनकी पहली चर्या के साथ आधुनिक चर्या की भिन्नता बताना तुम्हारा अज्ञान है। यद्यपि इस समय भगवान् महान् जनसमूह में जाकर धर्म का उपदेश करते हैं तथापि उनका किसी के साथ न तो राग है और न द्वेष है किन्तु सब के प्रति उनका भाव समान है। इसलिये महान् जनसमूह में स्थित होने पर भी वे पहले के समान एकान्त का ही अनुभव करते हैं अतः उनकी पूर्व अवस्था और आधुनिक अवस्था में वस्तुतः कोई फर्क नहीं है तथा पहले भगवान् महावीर स्वामी अपने चार घाती कर्मों का क्षय करने के लिये मौन रहते थे और एकान्त का सेवन करते थे परन्तु अब, उन कर्मों का क्षय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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