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________________ १५४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ अर्थात् यह मन जब तक दूसरे के गुण और दोष के विवेचन में प्रवृत्त रहता है तब तक यदि इसे शुद्ध ध्यान में लगाया जाय तो क्या अच्छा हो ? ।। ३१॥ दक्खिणाए पडिलंभो, अत्थि वा णत्थि वा, पुणो। ___ण वियागरेज मेहावी, संतिमग्गं च वूहए ॥ ३२॥ भावार्थ - दान की प्राप्ति अमुक से होती है या अमुक से नहीं होती है। यह बुद्धिमान् साधु न कहे किन्तु जिससे मोक्ष मार्ग की वृद्धि होती है ऐसा वचन कहे। • इच्चेएहिं ठाणेहिं, जिणदितुहिं संजए । धारयंते उ अप्पाणं,आमोक्खाए परिवएज्जासि ॥३३॥ ॥ ति बेमि॥ भावार्थ - इस अध्ययन में कहे हुए इन जिनोक्त स्थानों के द्वारा अपने को संयम में स्थापित . करता हुआ साधु मोक्ष के लिये प्रयत्न करे । मर्यादा में स्थित साधु, "अमुक गृहस्थ के यहां दान की प्राप्ति होती है अथवा नहीं होती है" यह नहीं कहे । अथवा मर्यादा में स्थित पुरुष "स्वयूथिक या परतीर्थी को दान देने से लाभ होता है या नहीं होता है" ऐसा एकान्तरूप से न कहे क्योंकि-दान के निषेध करने से अन्तराय होना सम्भव है और दान लेने वाले को दुःख भी उत्पन्न होता है तथा उन्हें दान देने का एकान्त रूप से अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से अधिकरण दोष उत्पन्न होना सम्भव है अतः साधु पूर्वोक्त प्रकार से एकान्त वचन न कहे किन्तु सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षमार्ग की जिस तरह उन्नति हो वैसा वचन कहे । आशय यह है कि कोई पुरुष साधु से दान देने के सम्बन्ध में प्रश्न करे तो साधु, दान का विधि निषेध न करता हुआ निरवद्य भाषा ही बोले। इस प्रकार इस अध्ययन में कहे हुए वाक् संयम को भलीभांति पालन करता हुआ साधु मोक्षपर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । पांचवें अध्ययन का सारे का निष्कर्ष इस प्रकार है - जिनशासन में अनेकान्तवाद है। कोई भी वस्तु एकान्त नहीं है। सभी पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है और नित्यानित्यात्मक है। इसलिये अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत और भाषा समिति का निरतिचार पालन हो इस बात का उपदेश इस अध्ययन में दिया गया है। एकान्त भाषा बोलने से मुनि के अहिंसा व्रत और सत्य व्रत में अतिचार लगता है। अतः एकान्त पक्ष का वर्जन करते हुए मुनि को बड़ी सावधानी पूर्वक भाषा बोलनी चाहिये। त्तिबेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥पाँचवाँ अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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