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________________ १५२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ यही मानना चाहिये । चार प्रकार के घनघाती कर्मों का क्षय किये हुए केवली में साता और असाता दोनों का उदय होता है तथा नारकीय जीवों में भी पञ्चेन्द्रियत्व और ज्ञान आदि का सद्भाव है अतः वे भी एकान्त पापी नहीं है अतः कथञ्चित् कल्याण और कथञ्चित् पाप भी अवश्य है यही युक्तियुक्त सिद्धान्त मानना चाहिये ।। २८॥ कल्लाणे पावए वावि, ववहारो ण विज्जइ । . जं वरं तं ण जाणंति, समणा बालपंडिया ॥ २९॥ भावार्थ - यह पुरुष एकान्त कल्याणवान् है और यह एकान्त पापी है ऐसा व्यवहार जगत् में नहीं होता है तथापि मूर्ख हो कर भी अपने को पण्डित मानने वाले शाक्य आदि, एकान्त पक्ष के आश्रय से उत्पन्न होने वाला जो कर्मबन्ध है उसे नहीं जानते हैं। असेसं अक्खयं वावि, सव्वदुक्खेति वा पुणो । · वज्झा पाणा ण वज्झत्ति,इति वायं ण णीसरे।३०॥ - भावार्थ - जगत् के समस्त पदार्थ एकान्त नित्य हैं अथवा एकान्त अनित्य हैं ऐसा नहीं कहना चाहिये तथा समस्त जगत् एकान्त रूप से दुःख रूप है यह भी नहीं कहना चाहिये तथा अपराधी प्राणी वध्य है या अवध्य है यह वचन साधु न कहे । दीसंति समियायारा, भिक्खुणो साहुजीविणो । एमए मिच्छोवजीवंति, इति दिढेि, ण धारए ॥ ३१॥ भावार्थ - साधुता के साथ जीने वाले साधु देखे जाते हैं, इसलिये -"ये साधु लोग कपट से. जीविका करते हैं" ऐसी दृष्टि नहीं रखनी चाहिये । विवेचन - इस जगत् में कोई पुरुष एकान्त रूप से कल्याण का ही भाजन हो और कोई एकान्त रूप से पापी हो, ऐसा नहीं है क्योंकि कोई भी वस्तु एकान्त नहीं है किन्तु सर्वत्र अनेकान्त का सद्भाव है ऐसी दशा में सभी पदार्थ कथंचित् कल्याणवान् और कथंचित् पापयुक्त हैं यही बात सत्य माननी चाहिये । एकान्त पक्ष के आश्रय लेने से कर्मबन्ध होता है परन्तु इस बात को अज्ञानी अन्यतीर्थी नहीं जानते हैं इसलिये वे अहिंसा धर्म और अनेकान्त पक्ष का आश्रय नहीं लेते हैं ।। २९॥ साङ्ख्य मतवाले जगत् के समस्त पदार्थों को एकान्त नित्य कहते हैं परन्तु विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि जगत् के सभी पदार्थ प्रतिक्षण अन्यथाभाव को प्राप्त होते रहते हैं। कोई भी वस्तु सदा एक ही अवस्था में नहीं रहती है । काटने पर फिर नवीन उत्पन्न हुए केश और नख में जैसे तुल्यता को लेकर "यह वही केश नख है यह प्रत्यभिज्ञान (पहिचान) होता है इसी तरह समस्त पदार्थों में तुल्यता को लेकर यह वही वस्तु हैं" यह प्रत्यभिज्ञान होता है इसलिये इस प्रत्यभिज्ञान को देखकर वस्तु में अन्यथाभाव न मानना और उन्हें एकान्त नित्य कहना मिथ्या है । इसी तरह जगत् के समस्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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