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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
प्राणियों का अघातक या उनके प्रति उसकी अहिंसात्मक चित्त वृत्ति नहीं कही जा सकती है। यह संज्ञी का दृष्टांत है।
अब असंज्ञी का दृष्टान्त बताया जाता है जो जीव ज्ञान रहित तथा मन से हीन हैं वे असंज्ञी कहे जाते हैं। ये जीव सोये हुए, मतवाले तथा मूर्छित आदि के समान होते हैं। पृथिवी से लेकर वनस्पतिकाय तक के प्राणी तथा विकलेन्द्रिय से लेकर सम्मूर्छिम पञ्चेन्द्रिय तक त्रस प्राणी असंज्ञी है। इन असंज्ञी प्राणियों में तर्क, संज्ञा, वस्तु की आलोचना करना, पहिचान करना, मनन करना और शब्द का उच्चारण करना आदि नहीं होता है। तो भी ये प्राणी दूसरे प्राणियों के घात की योग्यता रखते हैं यद्यपि इनमें मन, वचन और काया का विशिष्ट व्यापार नहीं होता है तथापि ये प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य पर्य्यन्त अठारह पापों से युक्त हैं इस कारण ये प्राणियों को दुःख, शोक और पीड़ा उत्पन्न करने से विरत नहीं है और प्राणियों को दुःख, शोक और पीड़ा उत्पन्न करने से विरत न होने के कारण इन असंज्ञी जीवों को भी पाप कर्म का बन्ध होता ही है। इसी तरह जो मनुष्य प्रत्याख्यानी नहीं है वह चाहे किसी भी अवस्था में हो सबके प्रति दुष्ट आशय होने के कारण उसको पापकर्म का बन्ध होता ही है। जैसे पूर्वोक्त दृष्टान्त के संज्ञी और असंज्ञी जीवों को देश काल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी दुष्ट आशय होने से कर्मबन्ध होता है इसी तरह प्रत्याख्यान रहित प्राणी को देश काल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी 'दुष्ट आशय होने से कर्म बन्ध होता ही है।
इस पाठ में संज्ञी और असंज्ञी प्राणी जो दृष्टान्त रूप से बताये गये हैं इनके विषय में कई लोगों की मान्यता है कि-"संज्ञी संज्ञी ही होता है और असंज्ञी असंज्ञी ही होता है" परन्तु यह सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि-ऐसा होने से तो शुभ और अशुभ कर्म का कोई फल ही नहीं होगा और नारकी सदा नारकी ही और देवता सदा देवता ही बने रहेंगे परन्तु यह इष्ट नहीं है अतः शास्त्रकार यहां खुलासा करते हुए कह रहे हैं कि-कर्म की विचित्रता के कारण कभी संज्ञी, असंज्ञी हो जाते हैं और असंज्ञी कभी संज्ञी हो जाते हैं। क्योंकि जीवों की गति कर्माधीन होती है अतः ऐसा कोई नियम नहीं है कि-जो इस भव में जैसा है दूसरे भव में भी वैसा ही रहेगा ।। ६६॥ .... चोयए-से किं कुव्वं किं कारवं कहं संजय-विरयप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे भवइ ?, आयरिय आह-तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पण्णत्ता, तंजहापुढवीकाइया जाव तसकाइया, से जहा णामए मम अस्सातं दंडेण वा, अट्ठीण वा, मुट्ठीण वा, लेलूण वा, कवालेण वा, आतोडिग्जमाणस्स वा, जाव उवहविग्जमाणस्स वा, जाव लोमुक्खणणमायमवि, हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा, जाव कवालेण वा, आतोडिज्जमाणे वा, हम्ममाणे वा, तजिजमाणे वा, तालिजमाणे वा, जाव उवहविजमाणे वा, जाव
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